राधा- क्यौं जी, ललिता! कहौ, यह पोलौ है कै ठोस।
ललिता- ये सब पोले बनत हैं कुम्हरनि सदन परौस।।11।।
समाजी- हँसि कैं निरखत सुदरी उलटि-पलटि कैं आम।
- मन हीं मन में सकपकत कहि न सकत कछुस्याम।।
[आम उलटि पलटि कैं देखिबे में हाथ से नीचें गिरि फूटि जाय]
- लेत-देत औचक छुट्यौ भू पर आम।
- श्रीजी- यामें ते कागद कढ्यौ, देखौ तौ री बाम।।13।।
- समाजी- ललिता चतुर प्रबीन अति लपकि उठायौ आय।
- ललिता- बोली मोसौं लाड़िली! भले पढ्यौ ना जाय।।14।।
- समाजी- लली-लाल जुरि मिलि सबै रुकि-रुकि तब पढ़ि लीन।
- लाल मूक से ह्वै रहे, बिष पुट तिय पढ़ि दीन।।
(श्रीजी पत्र कूँ बाँचैं)
- श्रीजी-सीतल पग परसाइयै, प्रीतम जू! उर-ऐंन।
- झरना से झरिबौ करैं तुम बिनु दोऊ नैन।।16।।
- चंदन चरची, फूल रचि झरपि उठत ज्यौं तेज।
- प्रीतम जू! तुम्हरे बिना दावानल सम सेज।।17।।