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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
14. रासलीला-प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम
ज्ञान का अखण्ड रस तो शान्त है, पर प्रेम का अनन्त रस प्रतिक्षण वर्धमान है। प्रतिक्षण वर्धमान कहने का अर्थ यह नहीं है कि प्रेम में कुछ कमी रहती है और उस कमी की पूर्ति के लिये वह बढ़ता है। वास्तव में प्रेम कम या अधिक नहीं होता। जैसे, समुद्र भीतर से शान्त रहता है, पर बाहर से उस पर लहरें उठती हैं और चन्द्रमा को देखकर उसमें उछाल आता है। परन्तु लहरें उठने पर, उछाल आने पर भी समुद्र का जल कम-ज्यादा नहीं होता, उतना-का-उतना ही रहता है। ऐसे ही प्रेम के अनन्त रस में लहरें उठती हैं, उछाल आता है, पर वह कम-ज्यादा नहीं होता। जब प्रेम शान्त रहता है, तब प्रेम और प्रेमास्पद एक अर्थात् अभिन्न होते हैं; और जब प्रेम में उछाल आता है, तब प्रेमी और प्रेममास्पद दो होते हैं। प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते हुए भी दो होते हैं- यह विरह है और दो होकर भी एक ही रहते हैं-यह मिलन है। इस प्रकार प्रतिक्षण वर्धमान रस (प्रेम)-का ही नाम ‘रस’ है। कल्पना करें कि किसी को ऐसी प्यास लगे, जो कभी बुझे नहीं और जल भी घटे नहीं तथा पेट भी भरे नहीं तो ऐसी स्थिति में जल के प्रत्येक घूँट में नित्य नया रस मिलेगा। इसी तरह प्रेम में भी श्रीकृष्ण को देखकर श्रीजी को और श्रीजी को देखकर श्रीकृष्ण को नित्य नया रस मिलता है और उन दोनों के रस का अनुभव गोपियाँ करती हैं! प्रेम की इस वृद्धि का नाम ही ‘रासलीला’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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