गोपी गीत -करपात्री महाराजश्रीकृष्ण के लिये ही, श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही, श्रीकृष्ण की निज सामग्री से ही श्रीकृष्ण को पूजकर, श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे अपने को सुखी समझती थीं। प्रातःकाल निद्रा टूटने के समय से लेकर रात्रि में सोने तक वे जो कुछ भी करती थीं। वह सब अपने आराध्य प्रियतम श्रीकृष्ण के लिये ही करती थीं। यहाँ तक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्णमय होती थी। स्वप्न और सुषुप्ति दोनों में ही वे श्रीकृष्ण की शान्त व मधुरलीला देखती और अनुभव करती थीं। रात को दही जमाते समय श्यामसुन्दर की मधुर छबि का ही ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्ण के लिये। उसे बिलोकर मैं बढ़िया-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छीके पर रखूँ जितने पर श्रीकृष्ण का हाथ आसानी से पहुँच सकें, फिर मेरे प्राणधन श्रीकृष्ण अपने सखाओं को साथ में लेकर हँसते और क्रीड़ा करते हुए घर में पदार्पण करें, माखन लें और लुटावें और आनन्दमग्न होकर मेरे आँगन में नाचें और मैं किसी कोने में छिपकर उनकी लीला को अपनी आँखों से देखकर जीवन को सफल कर सकूँ और अचानक ही उन्हें पकड़कर हृदय से लगा लूँ। गोपियों का तो सर्वस्व श्रीकृष्ण भगवान का था ही, सम्पूर्ण जगत् ही उनका है। वे भला किसकी चोरी करें। चोर तो वास्तव में वे लोग हैं, जो भगवान की वस्तु को अपनी मानकर ममता-आसक्ति में फँसे रहते हैं और दण्ड के पात्र होते हैं। वास्तव में गोपियों ने प्रेमाधिक्य के कारण उन्हें प्रेम का नाम ‘चोर’ कहकर पुकारा है। क्यों वे उनके चित्तचोर तो थे ही। गोपियाँ क्या चाहती थीं, यह बात उनकी साधना से ही स्पष्ट हो जाती है। वे चाहती थीं-श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण, श्रीकृष्ण के साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन, प्राण, सम्पूर्ण आत्मा श्रीकृष्णमय हो जाय। शरतकाल में उन्होंने श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि की चर्चा आपस में की थी। हेमन्त के पूर्व ही अर्थात् भगवान के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्ष के मास में उन्होंने अपनी साधना आरंभ कर दी थी। विलम्ब को वे सहन नहीं कर पा रही थीं। शीतकाल में वे प्रातःकाल ही यमुना-स्नान के लिये जातीं, उन्हें अपने शरीर की भी परवाह नहीं थी। बहुत-सी कुमारी गोपबालाएँ एक साथ हो जातीं। उनमें ईर्ष्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण का नाम-संकीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जातिबान्धवों से संकोच नहीं होता था। वे घर में ही हविष्यान्न का ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्ण के लिये इतनी व्याकुल हो गई थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं होता था। वे भगवती देवी की वालुकामय मूर्ति को विधिवत् बनाकर उसकी पूजा और मन्त्रजप करती थीं। अपने इस कार्य को सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व सब कुछ भगवान के चरणारविन्द में सर्वथा अर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण ही हमारे प्राणों के स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही। |