गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 95

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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उन्मद-मदन-मनोरथ-पथिक-वधूजन-जनित-विलापे।
अलिकुल-संकुल-कुसुम-समूह-निराकुल-बकुल-कलापे-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते.... ॥2॥[1]

अनुवाद- प्रिय सखि! प्रवास में गये हुए पतियों के विरह का अनुभवकर विरहिणियाँ केवल विलाप करती रहती हैं। तुम देखो तो! इस वसन्त ऋतु में मालती वृक्षों में पुष्पों को समा लेने के लिए कोई रिक्त स्थान ही नहीं है। राशि-राशि बकुल पुष्प प्रफुल्लित हो रहे हैं और इन पर श्रेणीबद्ध होकर असंख्य भ्रमर गुंजार कर रहे हैं और उधर श्रीकृष्ण युवतियों के साथ विहार तथा नृत्य कर रहे हैं। हाय! कैसे धैर्य धारण करूँ ॥2॥

पद्यानुवाद
काम-पीड़िता पांथ-वधू का व्यापित बहुल विलाप,
अलिकुल संकुल सुमन मनोहर पादप बकुल कलाप।
नहीं धरते हैं विरही धीर,
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥2॥

बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में वसन्त की दुरन्तता और उन्मादकता का चित्रण करते हुए सखी श्रीराधारानी से कहती है कि यह समय विरहीजनों के लिए अति दुष्कर है, इस समय मद तथा काम आविर्भूत हो जाते हैं। प्रियतम के द्वारा प्रवास हेतु चले जाने पर नानाप्रकार के मनोरथों के द्वारा प्रचालित होकर नायिकाएँ विरह विलाप करती रहती हैं। चहुँदिशि मौलश्री आदि कुसुमसमूह के द्वारा सुगन्ध विकीर्ण करने पर आमोदित भ्रमरकुल जैसे विकल होकर गुंजन करते हैं ॥2॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- उन्मद-मदन-मनोरथ-पथिक-वधूजन-जनित-विलापे (उद्रगतो मदो यस्य तेन गर्वस्फीतेन मदनेन मनोरथो येषां तेषां पथिकवधूजनानां जनितो विलापो येन तस्मिन्) [तथा] अलिकुल-सप्रुल-कुसुम-समूह-निराकुल-बकुल-कलापे (अलिकुलेन भ्रमरनिकरेण सप्रुल: आकीर्णो य: कुसुम-समूह: तेन निराकुल: नितरामाकुल: व्याप्त: इति यावत्र वकुलकलाप: यस्मिन् तादृशे) सरस वसन्ते इत्यादि ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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