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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्
उन्मद-मदन-मनोरथ-पथिक-वधूजन-जनित-विलापे। अनुवाद- प्रिय सखि! प्रवास में गये हुए पतियों के विरह का अनुभवकर विरहिणियाँ केवल विलाप करती रहती हैं। तुम देखो तो! इस वसन्त ऋतु में मालती वृक्षों में पुष्पों को समा लेने के लिए कोई रिक्त स्थान ही नहीं है। राशि-राशि बकुल पुष्प प्रफुल्लित हो रहे हैं और इन पर श्रेणीबद्ध होकर असंख्य भ्रमर गुंजार कर रहे हैं और उधर श्रीकृष्ण युवतियों के साथ विहार तथा नृत्य कर रहे हैं। हाय! कैसे धैर्य धारण करूँ ॥2॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में वसन्त की दुरन्तता और उन्मादकता का चित्रण करते हुए सखी श्रीराधारानी से कहती है कि यह समय विरहीजनों के लिए अति दुष्कर है, इस समय मद तथा काम आविर्भूत हो जाते हैं। प्रियतम के द्वारा प्रवास हेतु चले जाने पर नानाप्रकार के मनोरथों के द्वारा प्रचालित होकर नायिकाएँ विरह विलाप करती रहती हैं। चहुँदिशि मौलश्री आदि कुसुमसमूह के द्वारा सुगन्ध विकीर्ण करने पर आमोदित भ्रमरकुल जैसे विकल होकर गुंजन करते हैं ॥2॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- उन्मद-मदन-मनोरथ-पथिक-वधूजन-जनित-विलापे (उद्रगतो मदो यस्य तेन गर्वस्फीतेन मदनेन मनोरथो येषां तेषां पथिकवधूजनानां जनितो विलापो येन तस्मिन्) [तथा] अलिकुल-सप्रुल-कुसुम-समूह-निराकुल-बकुल-कलापे (अलिकुलेन भ्रमरनिकरेण सप्रुल: आकीर्णो य: कुसुम-समूह: तेन निराकुल: नितरामाकुल: व्याप्त: इति यावत्र वकुलकलाप: यस्मिन् तादृशे) सरस वसन्ते इत्यादि ॥2॥
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