गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 408

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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पद्यानुवाद
प्रिय आलिंगन के आये क्षण,
मदन तरंगित कंपित मृदुतन।
पूछ कुचों से हार धार जल ढरते॥
जो वन कुम्भ शकुन में।
चल सखि! चल घनश्याम सदन में॥

बालबोधिनी- सखी कहती है हे राधे! क्या सोच रही हो? अब तुम्हें और किस प्रमाण की आवश्यकता है। यदि तुम्हें मेरा विश्वास नहीं है तो मनोहर हाररूपी जलधारा वाले कुम्भ के समान अपने कुचों से पूछ लो। भला इनके प्रस्फुरण का कारण क्या है? ये कामदेव की तरंग से वशीभूत होकर तरंगायित हो रहे हैं और प्रिय आलिंगन की सूचना दे रहे हैं, इनकी रसधारा में ही श्रीहरि प्रेम-सागर में निमग्न हो जायेंगे। इन्हें श्रीहरि के कर-कमल स्पर्श की लालसा हो रही है। इन स्तनरूपी शकुन-कलशों पर विद्यमान विमल मनोहर हार पावन एवं निर्मल जल की धारा के समान है। यही जल की धारा तरंगायमान होकर प्रिय प्राप्ति का संदेशा दे रही है। काम के आवेश से स्फुरित तुम्हारे स्तन ही तो फड़क कर शुभ शकुन बन रहे हैं। इसे अभिशाप समझकर अब तुम विलम्ब मत करो, शीघ्र चलो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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