गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 351

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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गुर्जरीराग-यतितालाभ्यां गीयते।

गीतगोविन्द काव्य का प्रस्तुत अठारहवाँ प्रबन्ध गुर्जरी राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है।

हरिरभिसरति वहति मधुपवने
किमपरमधिकसुखं सखि! भवने ॥1॥
माधवे मा कुरु मानिनि। मानमये ॥ध्रुवपदम्॥[1]

अनुवाद- हे मानिनि! देखो, इस समय मन्द-मन्द वासन्ती समीर प्रवाहित हो रहा है, श्रीकृष्ण अभिसार के लिए तुम्हारे संकेत भवन में आ रहे हैं। हे सखि! इससे अधिक बढ़कर और सुख क्या हो सकता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अये मानिनी (मानवति राधे) मृदुपवने (मलयमारुते) बहति सति हरि: (कृष्ण:) अभिसरति (संकेतस्थानमायाति); [तस्मात्] माधवे मानं मा कुरु (मधुवंशोद्भर्वे श्रिया महासम्पत्ते: पत्यौ चेति मानानर्हत्वादिति भाव:) [कथं वञ्चकेऽस्मिन् मानो न विधेय इत्याह]- सखि भवने (कृष्णविहीने गृहे) अपरम् (अन्यत्) अधिकसुखं किम् [अस्ति] माधवाभि-सरणादन्यत् सुखं नास्त्येवेति भाव:] ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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