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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ
10. गीतम्
दहति शिशिरमयूखे मरणमनुकरोति। अनुवाद- वे चन्द्र-किरणों से संदग्ध होकर मुमुर्षु प्राय: हो रहे हैं। वृक्षों से मदन-शर के सदृश पुष्पों के गिरने से उनका हृदय विद्ध हो गया है। ऐसी स्थिति में वे अति विकल होकर विलाप कर रहे हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- तुम्हारे विरह से सन्तप्त वनमाली को चन्द्रमा शीतल नहीं करता, अपितु उन्हें प्रदाह का अनुभव होता है। इस चन्द्र से ज्वाला निकल रही है, जो उन्हें जलाये जा रही है, मानो मृत्यु ही साक्षात् उपस्थित हुई है। मृतप्राय व्यक्ति जैसी चेष्टा करता है, उसी प्रकार वे भी चेष्टा करते हैं। वृक्षों के पत्ते तथा फूलों के गिरने से उनको ऐसा लगता है कि मानो कामदेव उनके हृदय पर बाण मार रहा हो। वे कुसुम-शय्या पर ऐसे पड़ जाते हैं, मानो बाणों की शय्या हो और अधिक विकल होकर बिलखने लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- शिशिरमयूखे (शीतरश्मौ चन्द्रे) दहति (दहनवत् किरणं वितरति सति) मरणम् अनुकरोति (मृतवन्निश्चेष्टो भवति; मूर्च्छतीति भाव:) [तथा] मदनविशिखे (कामबाणे) पतति [सति] अतिविकलतर: [सन्] विलपति [कुसुमपतने हृदि विध्यत्कामबाणभ्रमात्र आक्रोशतीत्यर्थ:] ॥2॥
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