गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 70

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्

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कलित ललित वनमाल आपने अतिशय मनोहर वनमाला को धारण किया है। विश्व कोषकार कहते हैं

आपादलम्बिनी माला वनमालेति तां विदु:।
पत्रपुष्पमयी माला वनमाला प्रकीख्रत्तता ॥

अर्थात पैरपर्यन्त लटकने वाली माला को वनमाला कहते हैं। वनमाला पत्र एवं पुष्पों से बनी हुई होती है। इस प्रकार तीनों विशेषणों से श्रीकृष्ण का नवतारुण्य द्योतित होता है, उनका वेशविन्यास भी प्रकाशित होता है- नवकिशोर नटवर गोपवेश वेणुकर।

हरे-हे श्रीकृष्ण! आप सबके चित्त, मन एवं प्राणों को आकर्षित करते हैं, साथ ही सबके मध्य में अपनी लीला चमत्कारिता प्रकट करते हैं। इससे आपका उत्कर्ष उजागर हो रहा है।

इस गीति के प्रत्येक पद के अन्त में 'जय जय देव हरे' इस ध्रुव पद की संयोजना है। प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण का धीरललितत्व चित्रत हो रहा है, जैसाकि धीरललित नायक का लक्षण है-विदग्ध, नवतरुण, विशारद, निश्चिन्त एवं प्रेयसीवश्यता।

'ए'-कार का प्रयोग गान की वेला में रागपूर्त्ति के लिए हुआ है ॥1॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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