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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्
'धृतमीनशरीर' यह भगवान का दूसरा सम्बोधन है। श्रीभगवान सन्तजनों के परित्रण और पापियों के विनाश हेतु विविध रूपों में अवतरित होते हैं। उनके असंख्य अवतारों में से दश प्रधान हैं। उन दश अवतारों में मत्स्यावतार सर्वप्रथम अवतार है। इस अवतार में श्रीभगवान ने वेदों के अपहरणकर्त्ता हयग्रीव का बधकर वेदोंका उद्धार किया था। ये मीन अवतार वीभत्स रस के अधिष्ठाता हैं। 'जगदीश' इस तीसरे सम्बोधन का अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान सम्पूर्ण जगत और प्रकृति के ईश्वर हैं। वे सम्पूर्ण जगत की सृष्टि, स्थिति एवं पालन का नियमन करते हैं तथा जगत के भीतर अन्तर्यामी रूप में स्थित होकर उसका नियमन करते हैं। जगदीश शब्द से भगवान की करुणा भी प्रकट होती है। 'हरे' इस चतुर्थ सम्बोधन का तात्पर्य यह है कि भगवान भक्तों के अशेष प्रकार के कष्टों को हरण करने वाले हैं हरति भक्तानां क्लेशम्। इसी हेतु उनका अवतार होता है। इन चार सम्बोधनों के द्वारा कविराज ने श्रीभगवान के प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित किया है। जय, अर्थात हे प्रभो! आप अपने उत्कर्ष का आविष्कार करने में सिद्धहस्त हैं, आप इस उत्कर्ष को प्रकट करें। जय जगदीश हरे यह पंक्ति प्रत्येक पद के साथ आवृत्त करके गायी गई है, अतएव इसे ध्रुव-पद कहा जाता है 'ध्रुवत्वाच्च ध्रुवो ज्ञेय:'। यह ध्रुव-पद अन्त में प्रयुक्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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