गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 38

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं
विहितवहित्रचरित्रमखेदम् ।
केशव धृत-मीनशरीर
जय जगदीश हरे ॥ध्रुवपदम् ॥1॥

अन्वय - हे केशव! हे धृत-मीनशरीर! (स्वीकृत-मत्स्य-कलेवर) त्वं प्रलयपयोधिजले (कल्पान्तसागर-सलिले) विहित-वहित्रचरित्रम् (विहितं स्वीकृतम् अवलम्बितमिति यावत्र वहित्रस्यअर्णवपोतस्य चरित्रं व्यवहारो यस्मिन् तद्यथा स्यात् तथा अखेदं (अनायासं यथा स्यात्र तथा) वेदं धृतवानसि (रक्षितवानसि) अत: हे जगदीश, हे हरे, (हरति भक्तानामशेषक्लेशमितिहरि: तत्सम्बुद्धो) त्वं जय (सर्वोत्कर्षे वर्त्तस्व) ॥1॥

अनुवाद - हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेद के सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तु का उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्य रूप में अवतीर्ण होकर वेदों को धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान! आपकी जय हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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