परमात्मतत्त्व समान रूप से सबमें परिपूर्ण है। सबमें परिपूर्ण होने पर भी विलक्षणता यह है कि वह ज्यों-का-त्यों रहता है, जबकि संसार में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है। गीता में आया है-
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ।।[1]
‘प्रकृति और पुरुष दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों को तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो।’
यद्यपि प्रकृति और पुरुष- दोनों ही अनादि हैं, तथापि परिवर्तनशील विकार और गुण प्रकृति से ही होते हैं। पुरुष (जीवात्मा) अपरिवर्तनशील है।
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्त्तृत्वे हेतुरुच्यते ।।[2]
‘कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखों के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।’
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