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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥2॥
आपके व्यामिश्रित उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है। अतः कृपा करके निश्चयपूर्वक मुझे बतायें कि इनमें से मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर क्या होगा?
भावानुवाद- हे सखे अर्जुन! गुणातीता भक्ति ही सर्वोत्कृष्ट है, यह तो सत्य है, परन्तु ऐसी भक्ति एकमात्र मेरे किसी स्वच्छन्द, ऐकान्तिक महाभक्त की कृपा के द्वारा ही प्राप्त होती है। यह किसी पुरुष को अपने परिश्रम से प्राप्त नहीं होती है। अतएव ‘निस्त्रैगुण्य होओ’ अर्थात् तुम्हें यह आशीर्वाद दिया जा रहा है कि गुणातीता मेरी भक्ति के द्वारा तुम निस्त्रैगुण्य हो सकते हो। जब यह आशीर्वाद फलीभूत होगा, तब तुम वैसे किसी स्वैच्छिक ऐकान्तिक भक्त की कृपा प्राप्त कर गुणातीता भक्ति प्राप्त करोगे। परन्तु, अभी कर्म में तुम्हारा अधिकार है-यह मैं पहले ही कह चुका हूँ और यही सत्य है। तब अर्जुन कहते हैं-“यदि ऐसा ही है, तो आप ऐसा निश्चित रूप में क्यों नहीं कहते हैं कि कर्म ही करो। आप मुझे सन्देह-सागर में क्यों डुबो रहे हैं?” इसके लिए अर्जुन ‘व्यामिश्र’ इत्यादि कह रहे हैं अर्थात् जो वाक्य नाना अर्थों से मिश्रित है, उस वाक्य के द्वारा मेरी बुद्धि मोहित कर रहे हैं। और भी, पहले तो आपने कहा ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’[1]अर्थात् कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, पुनः आपने कहा ‘सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते’[2] अर्थात् सिद्धि और असिद्धि में समभावयुक्त रहने से वह समत्व ही योग कहलाता है। पुनः आपने कहा-
‘बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत-दुष्कृते।
तस्माद् योगाय युज्यस्व योगः कर्मषु कौशलम्।।’[3]
अर्थात बुद्धिमान् व्यक्ति सुकृत और दुष्कृत-दोनों का ही त्याग करते हैं, अतः तुम निष्काम कर्म के लिए यत्न करो, क्योंकि बुद्धियोग ही कर्म का कौशल है। यहाँ योग शब्द से आप ज्ञान भी प्रतिपादित कर रहे हैं। ‘यदा ते मोहकलिलं’[4]अर्थात् जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप वन को पारकर जाएगी-इस वाक्य के द्वारा आप केवल ज्ञान को ही बता रहे हैं। वस्तुतः यहाँ ‘इव’ शब्द के कारण आपका वाक्य अनेक अर्थों वाला नहीं है। आप तो कृपालु हैं, अतः आपकी इच्छा मुझे मोहित करने की भी नहीं है। यद्यपि मैं भी इन बातों से अनभिज्ञ नहीं हूँ, फिर भी आपका स्पष्टपूर्वक बोलना ही उचित है। इसका गूढ़ अभिप्राय यह है कि राजसिक कर्म से सात्त्विक कर्म श्रेष्ठ है। सात्त्विक कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है, परन्तु वह भी सात्त्विक ही है। निगुर्ण भक्ति ज्ञान से अतिश्रेष्ठ है। यदि निर्गुणा भक्ति मेरे लिए सम्भव नहीं है, तो फिर एकमात्र सात्त्विक ज्ञान का ही उपदेश दीजिए। उसके द्वारा ही मैं इस दुःखमय संसार के बन्धन से मुक्त होऊँगा।।2।।
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