श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मनं मत्परायणः।।34।।
भावानुवाद- मन्मना इत्यादि से भजन की प्रणाली बताते हुए इस अध्याय को समाप्त कर रहे हैं। ‘आत्मानम्’ अर्थात् मन और देह को मुझ में नियुक्त कर मेरा भजन करो।।34।।
अपने स्पर्श मात्र से ही भक्ति पात्र-अपात्रादि सभी को पवित्र कर देती है - यही राज गुह्य कहलाने वाले इस नवम अध्याय में कथित हुआ है।
श्रीमद्भागवत् के नवम अध्याय की साधुजन सम्मता भक्तानन्द दायिनी सारार्थ वर्षिणी टीका समाप्त।
श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय की सारार्थ वर्षिणी टीका का हिन्दी अनुवाद समाप्त।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- कृष्ण प्रेम ही जीव मात्र के लिए चरम प्रयोजन है। शुद्धा या अनन्य भक्ति ही उक्त प्रयोजन-प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। शुद्ध जीव ही भगवद् भजन के लिए योग्य पात्र हैं तथा विशुद्ध श्री कृष्ण स्वरूप पर तत्त्व ही शुद्ध जीवों के चरम उपास्य हैं। जब तक सिद्धान्त से पूर्ण रूपेण अवगत नहीं हुआ जाय, तब तक परमार्थ-चेष्टा सर्वांग सुन्दर नहीं हो सकती। ज्ञान, कर्म तथा योग से सम्पूर्ण रूप से मुक्त शुद्ध भक्ति ही सप्तम और अष्टम अध्याय में कथित हुई है। नवम अध्याय में केवल उपास्य तत्त्व की शुद्धता का वर्णन है। शुद्ध उपास्य तत्त्व का वर्णन करने के लिए उपास्य तत्त्व की भाँति प्रतीत होने वाले देवी-देवताओं की उपासना से उत्पन्न दोषों का वर्णन करना आवश्यक है। इसलिए विज्ञान के द्वारा विशुद्ध चित्स्वरूप श्री कृष्ण मूर्ति का नित्य-सिद्धत्व प्रदर्शित हुआ है। इस नित्य मूर्ति विशिष्ट परमेश्वर के प्रभाव रूप ब्रह्म तथा परमात्मा की ही ज्ञानी-योगी तथा यज्ञिकगण उपासना करते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त परमार्थ तत्त्व के खण्ड भावों की उपासना नहीं कर नित्य मूर्ति श्री कृष्ण की ही उपासना करेंगे। श्री कृष्ण के नित्य स्वरूप से पृथक् अन्यान्य देवी-देवताओं की उपासना नितान्त अज्ञानता का कार्य है, क्योंकि उन देवताओं की उपासना करने से खण्ड भाव विशिष्ट गति प्राप्त होती है। भक्ति योग में यही बात है कि अन्यान्य देवी-देवताओं की उपासना से विरत होकर अन्याभिलाष से रहित होकर दृढ़ विश्वास पूर्वक श्री कृष्ण स्वरूप के श्रवण-कीर्तन-स्मरणादि नवधा भक्ति का अनुशीलन करते हुए देह यात्रा का निर्वाह करना चाहिए। ऐसे अनन्य भक्त प्रारम्भिक अवस्था में सुदुराचारी होने परभी कर्मी-ज्ञानी-योगी की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। अतः वे साधु ही हैं, क्योंकि थोड़े ही दिनों में ऐकान्तिक भाव में दृढ़ होने पर उनका चरित्र सब प्रकार से निर्मल हो जाएगा।
भगवान् की शुद्धा भक्ति ही उक्त प्रेम रूप उस फल को उत्पन्न करेगी। शुद्ध भक्त का कभी भी नाश अथवा पतन नहीं होता, क्योंकि भगवान् स्वयं उनके योगक्षेम को वहन करते हैं। अतः शुद्ध भक्ति योग का अवलम्बन कर देह यात्रा का निर्वाह करना ही बुद्धिमानों का कार्य है।।34।।
श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायणकृत श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय की सारार्थवर्षिणी-प्रकाशिका-वृत्ति समाप्त।
नवम अध्याय समाप्त।
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