श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 276

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय

इसी प्रकार नियमित रूप से गीता की टीका लिखी जाती। एक दिन ब्राह्मण भजन से निवृत्त होकर टीका लिखने बैठे। ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां... नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्’ [1]श्लोक की टीका लिखनी थी। श्लोक पढ़ते ही एक जटिल समस्या पैदा हुई। वे किसी प्रकार भी उसका समाधान नहीं कर पा रहे थे। जो स्वयं भगवान् हैं, जो सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड के एकमात्र अधीश्वर हैं, क्या वे अपना अनन्य भाव से भजन करने वाले व्यक्तियों का योग-क्षेम स्वयं वहन करते हैं ? नहीं, ऐसा कदापि सम्भव नहीं। यदि यह सत्य है, तो मेरी अवस्था ऐसी क्यों है? मैं तो अनन्य भाव से केवल उन्हीं का भरोसा करता हूँ; मैंने अपना यथा सर्वस्व उन्हीं के चरणों में अर्पण कर दिया है, फिर भी मुझे ऐसा दारिद्रय-दुःख क्यों भोगना पड़ता है? अतः ‘नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्’ भगवान् के मुखारविन्द से निकला हुआ वाक्य नहीं, बल्कि प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। वे अपनी बुद्धि से गुत्थी को जितना ही सुलझाने की चेष्टा करते और अधिक उलझते जाते। धीरे-धीरे उनका सन्देह बढ़ता गया। आखिर उन्होंने उस अंश को लाल स्याही की तीन रेखाओं से काट दिया और ग्रन्थ लिखना बन्द कर भिक्षा के लिए निकल पड़े।

इधर करुणामय प्रणत पाल भगवान् ने देखा कि मेरे भक्त के मन में मेरे वचनों पर सन्देह उत्पन्न हुआ है। वे अति मनोहर सुकुमार श्याम वर्ण का बालक वेश धारण कर दो टोकरियों में प्रचुर चावल, दाल, तरकारी और घी इत्यादि सामान भरकर बहँगी पर रखकर उसे स्वयं अपने कन्धों पर वहन करते हुए मिश्रजी के दरवाजे पर पहुँचे। दरवाजा भीतर से बन्द था। उन्होंने पहले दरवाजा खटखटाया और फिर जोर-जोर से पुकारने लगे- माताजी! माताजी! बेचारी ब्राह्मणी के पास कोई कपड़ा नहीं था। चिथड़ों को लपेट कर किसी के सामने जाए भी तो कैसे? वे लज्जावशतः चुपचाप बैठी रही। किन्तु, दरवाजे की खटखटाहट और पुकारने की आवाज बन्द होने के बदले क्रमशः बढ़ती गई। आखिर उसने लाचार होकर दरवाजा खोल दिया।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 9/22

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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