श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।5।।
तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहतीं। जरा, मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ।
भावानुवाद- अतएव मुझमें अवस्थिति समस्त भूत भी मेरे स्वरूप में अवस्थित नहीं हैं, क्योकि मैं असंग हूँ। यदि कहो कि इससे पूर्व कथित आपके जगद् व्यापकत्व और जगदाश्रयत्व का विरोध होता है, तो इसका उत्तर यह है कि मेरे असाधारण योगैश्वर्य अर्थात अघटित को घटित करने वाले ऐश्वर्य को देखो, यह उसका ही कार्य (प्रभाव) है। मेरे और भी आश्चर्य को देखो - जो भूतों को धारण करते हैं, वे भूतभृत हैं; जो भूतों का पालन करते हैं, वे भूतभावन हैं- इस प्रकार होने पर भी जो मेरा आत्मा भूतस्थ नही है। अर्थात् भूत स्वरूप में अवस्थित नहीं है। मुझ भगवान् में देह-देही का भेद नहीं है। ‘राहोः शिरः’- यहाँ जिस प्रकार अभेद में षष्ठी का प्रयोग है, उसी प्रकार यहाँ षष्ठी का प्रयोग हुआ है। जिस प्रकार जीव देह को धारण तथा पालन कर आसक्ति वश देह में ही अवस्थान करता है, मैं उसी प्रकार भूतों को धारण पालन करने पर भी, मायिक भूत-शरीर में स्थित होता हुआ भी अनासक्त होने के कारण उनमें नहीं हूँ ।।5।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
मैं समग्र भौतिक जगत में व्याप्त हूँ और समस्त भूत मुझमें अवस्थित हैं, तथापि वे मेरे स्वरूप में अवस्थित नहीं हैं - इस विषय को और भी स्पष्ट करते हुए श्री भगवान् अर्जुन को बता रहे हैं कि मैं समस्त भूतों का धारक तथा पालन होने पर भी भूतों में स्थित नहीं हूँ। श्रीमद्भागवत में भी इस सिद्धान्त की पुष्टि की गई है -
‘एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्गुणैः न युज्यते’[1]
अर्थात्, ईश्वर प्रकृति में अधिष्ठित रहने पर भी प्राकृतिक गुणों में लिप्त नहीं होते। यही ईश्वर का आश्चर्यजनक ईश्वरत्व है। यह अघटन-घटन कार्य ही ऐश्वर्य योग है।
“मैंने कहा कि समस्त भूत मुझमें ही अवस्थित हैं। इससे यह मत समझो कि मेरे शुद्ध स्वरूप में समस्त भूत हैं। मेरी माया शक्ति का जो प्रभाव है, वे (समस्त भूत) उसमें ही स्थित हैं। तुम जीव-बुद्धि द्वारा इसका सामञ्जस्य नहीं कर पाओगे, अतएव इसे मेरा ऐश्वर्य-योग समझकर मेरे शक्ति-कार्य को मेरे कार्य-बोध से मुझे ‘भूतभृत’, ‘भूतस्थ’ और ‘भूतभावन’ जानकर यह विचार स्थिर करो कि मुझमें देह-देही का भेद नहीं होने के कारण मैं सर्वस्थ होकर भी नितान्त निःसंग हूँ।”- श्री भक्ति विनोद ठाकुर ।।5।।
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