श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
प्रथम अध्याय
दोषैरेतै कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्र्वताः॥42॥
जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं, और इस तरह अवांछित सन्तानों को जन्म देते हैं, उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य विनष्ट हो जाते हैं।
भावानुवाद- ‘उत्साद्यन्ते’ - लुप्त हो जाते हैं।।42।।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥43॥
हे प्रजापालक कृष्ण! मैनें गुरु-परम्परा से सुना है कि जो लोग कुल-धर्म का विनाश करते हैं, वे सदैव नरक में वास करते हैं।
अहो बत महत्पापं कर्त्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥44॥
ओह ! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं। राज्यसुख भोगने कि इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं॥44॥
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