श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टम अध्याय
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।21॥
जिसे वेदान्ती अप्रकट और अविनाशी बताते हैं, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है।
भावानुवाद- ‘अव्यक्त’ इत्यादि से पूर्व श्लोक में कथत ‘अव्यक्त’ शब्द की व्याख्या कर रहे हैं। जिसका क्षय अथवा नाश नहीं है, वही अक्षर है। नारायण श्रुति कहती है - ‘एको नारायण आसीन्न ब्रह्मा न च शंकरः’ अर्थात् सर्वप्रथम एकमात्र नारायण थे, ब्रह्मा भी नहीं तथा शिव भी नहीं। मेरा परम धाम नित्य स्वरूप है अथवा ब्रह्म ही मेरा धाम अर्थात् तेजोमय रूप है।।21।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- चराचर लोक समूह के अनित्यत्व का वर्णन कर वर्तमान दो श्लोक में परमेश्वर-तत्त्व का नित्यत्व दिखा रहे हैं। अव्यक्त हिरण्यगर्भ से श्रेष्ठ अवाङ्मनसोगोचर (मन और इन्द्रियों से अतीत) सनातन पुरुष का वर्णन कर रहे हैं। इसी अव्यक्त तत्त्व को अक्षर ब्रह्म भी कहते हैं। यही प्राणियों की परम गति है, जिसको प्राप्त कर संसार में पतित होने की पुनः सम्भावना नहीं होती, वही इनका परम धाम है।।21।।
पुरुषः स परः पार्थ भक्तया लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।22॥
भगवान, जो सबसे महान हैं. अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।
भावानुवाद- वह मेरा अंश परम पुरुष अनन्या भक्ति द्वारा ही प्राप्य है। ‘अनन्या’ का तात्पर्य - जिसमें अन्य अर्थात् कर्म-ज्ञान-योग-कामना आदि नहीं है। अतएव पूर्व में[1] मैंने कहा है - ‘अनन्य चेताः सततम्’।।22।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
पूर्व श्लोक में वर्णित अव्यक्त अवस्था में स्थित पुरुष श्री कृष्ण के स्वांश-तत्त्व हैं। समस्त प्राणी इनके ही भीतर अवस्थित हैं तथा समस्त प्राणियों में स्थिति होने के कारण ये अन्तर्यामी पुरुष भी हैं। केवल कर्म-ज्ञान-योगादि से निरपेक्ष अनन्या भक्ति से ही इनको प्राप्त किया जा सकता है।।22।।
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