श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टम अध्याय
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये।।11॥
जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि हैं, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रह्मचर्य व्रत का अभ्यास करते हैं। अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊँगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति-लाभ कर सकता है।
भावानुवाद- ‘आज्ञाचक्र में (भ्रूद्वय के मध्य में) प्राण को आविष्ट कर’ क्या केवल इतना ही कहने से योग द्वारा उसे जाना जा सकता है ? अतः उस योग का क्या प्रकार है? जप क्या है? ध्येय क्या है? प्राप्य क्या है? इन्हें भी संक्षेप में बतावें। इस प्रश्न की अपेक्षा से श्री भगवान् ‘यद्’ इत्यादि तीन श्लोक कह रहे हैं। ‘ऊँ’ ही ‘अक्षर’ है, यह एकाक्षर ब्रह्म वाचक है- वेदज्ञ व्यक्ति ऐसा कहते हैं। इसी एकाक्षर वाच्य ब्रह्म में संन्यासिगण प्रवेश करते हैं। वही पद प्राप्त होने योग्य है। उस प्राप्य पद को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है, उसे उपाय सहित बता रहा हूँ, श्रवण करो।।11।।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।12॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरनमामनुस्मरन।
यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्।।13॥
समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है। इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है।
इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परं संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान का चिन्तन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है।
भावानुवाद- उक्त अर्थ को कहते हुए योग का प्रकार बता रहे हैं- ‘सर्वाणि’ अर्थात् नेत्रादि इन्द्रिय द्वार समूह को बाह्म विषयों से प्रत्याहार कर तथा मन को हृदय में ही निरोध कर अर्थात् अन्य विषयों का असंकल्प कर, भ्रूद्वय के बीच में ही प्राण को स्थापित कर ‘योगधारणाम्’ अर्थात् आपादमस्तक मेरी मूर्ति का आश्रय कर ब्रह्म स्वरूप ओंकार (ऊँ) का उच्चारण कर ओंकार के प्रतिपाद्य - मेरा निरन्तर चिन्तर करते हुए शरीर त्याग करने पर परम गति प्राप्त करते हैं अर्थात् मेरे सालोक्य को प्राप्त होते हैं।।12-13।।
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