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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
प्रथम अध्याय
यद्यप्येते न पश्यति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥37॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥38॥
हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते किन्तु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हों?
भावानुवाद- अहो! फिर भी इस युद्ध में क्या प्रवृत्त हैं? इसके उत्तर में ‘यद्यपि’ इत्यादि वाक्यों को कह रहे हैं।।37।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- अर्जुन ने विचार किया कि इस युद्ध में द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि आचार्य, शल्य, शकुनि आदि मामा, भीष्मादि कुलवृद्ध, धृतराष्ट्र के पुत्रगण, सम्बन्धी तथा जयद्रथादि कुटुम्बीगण उपस्थित हैं। इनके साथ विरोध करना शास्त्रों में निषिद्ध है -
‘ऋत्विक् पुरोहिताचार्य मातुलातिथिसंश्रितैः।
बालवृद्धातुरैर्वैद्यज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः।।’
अर्थात्, ऋत्विक, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि, आश्रित वर्ग, बालक, वृद्ध और बन्धु-बान्धवों के साथ विवाद नहीं करना चाहिए। परन्तु, इनसे ही मुझे युद्ध करना पड़ेगा। अतः अर्जुन ने सम्मुख खड़े इन आत्मीय स्वजन से युद्ध के लिए अपनी अनिच्छा प्रकट की। किन्तु, ये सभी हमसे युद्ध करने के लिए क्यों प्रस्तुत हैं - इसका समाधान करते हुए वे सोच रहे हैं - ये सभी क्षुद्र स्वार्थ के वशीभूत हो कर हित-अहित तथा धर्म-अधर्म के विचार से रहित हो रहे हैं, अतः वे कुलक्षय से उत्पन्न पाप की बात भूल गये हैं। किन्तु, हमें कोई स्वार्थ नहीं है, अतः हम इस निन्दनीय और घृणित पाप कर्म में क्यों प्रवृत्त होवें?।।37-38।।
श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायणकृत श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय की सारर्थवर्षिणी-प्रकाशिका-वृत्ति समाप्त।
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