श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टम अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
यहाँ श्री भगवान अर्जुन के तीन प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार दे रहे हैं-
अधिभूत- क्षण-क्षण परिवर्तनशील एवं विनाशी स्थूल देह समूह प्राणियों का अवलम्बन कर वर्तमान रहते हैं, इसलिए घट-घट आदि नश्वर पदार्थों को ‘अधिभूत’ कहते हैं।।
अधिदैव- समष्टि स्वरूप विराट पुरुष आदित्य आदि देवताओं पर अधिकार कर वर्तमान रहते हैं, इसलिए उन्हें ‘अधिदैव’ कहा जाता है।
अधियज्ञ- जीवों के शरीर में अन्तर्यामी रूप में यज्ञादि कर्म प्रवर्तक और उसके फल प्रदाता के रूप में अवस्थित पुरुष ही अधियज्ञ हैं। ये अन्तर्यामी पुरुष कृष्ण के स्वांश-तत्त्व हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा गया है -
‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति।।’ [1]
अर्थात्, क्षीरोदशायी पुरुष और जीव उस अनित्य संसार रूप पीपल के वृक्ष के ऊपर सखा की तरह वास करते हैं। उन दोनों से एक अर्थात् जीव अपने कर्म के अनुसार उस वृक्ष के फलों को चख रहा है और दूसरे अर्थात परमात्मा उन फलों का भोग न कर साक्षी स्वरूप केवल देख रहे हैं।
श्रीमद्भागवत [2] में भी श्री शुकदेव गोस्वामी ऐसा ही कह रहे हैं- ‘केचित् स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम्’ अर्थात् कोई कोई योगी पुरुष अपने अन्तः करण रूप गुहा में विराजित प्रादेश मात्र पुरुष को स्मरण करते हैं। ‘प्रादेशमात्र’ शब्द का अर्थ श्रीधर स्वामी ने ‘अँगूठे से तर्जनी की शेष सीमा’ किया है। श्री चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है- वे उतने ही प्रदेश में अचिन्त्य शक्ति द्वारा पन्द्रह वर्षीय किशोर के रूप में अवस्थित हैं। पुनः कठोपनिषद्[3]में कथित है- ‘अंगष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति’।
इन समस्त प्रमाणों से यह प्रमाणित होता है कि अन्तर्यामी परमात्मा साधारण जीवों के हृदय में अंगुष्ठमात्र प्रदेश में स्थित हैं, किन्तु विशेष भक्तों के लिए ये कृष्ण ही पन्द्रह वर्षीय किशोर के रूप में अवस्थित है। जैसे- बिल्वमंगल के हृदय में स्थित अन्तर्यामी पुरुष दिव्य किशोरावस्था वाले श्री कृष्ण ही हैं-
‘चिन्तामणिर्जयति सोमगिरि गुरु में शिक्षागुरुश्च भगवान् शिखिपिच्छ मौलिः’[4]
अर्थात्, सर्वाभीष्ट प्रदाता गुरु रूपा चिन्तामणि एवं सोम गिरि नामक गुरु जय युक्त हों तथा मेरे हृदय में विराजमान शिक्षा गुरु मयूर पिच्छधारी भगवान् श्री कृष्ण जय युक्त हों। अर्जुन के हृदय स्थित अन्तर्यामी पुरुष उनके रथ में विराजमान स्वयं किशोर कृष्ण हैं।।4।।
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