श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 231

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥26॥
हे अर्जुन! श्रीभगवान होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता।

भावानुवाद- जो माया अपने आश्रय तत्त्व अर्थात् मुझे विमोहित नहीं कर सकती है, वह बहिरंगा माया है। अन्तरंगा माया मेरे ज्ञान को आवृत नहीं करती है, इसलिए ‘वेदाहं’ इत्यादि कहा जा रहा है। प्राकृत और अप्राकृत लोक महारुद्रादि महासर्वज्ञ भी मुझे सम्पूर्ण रूप से नहीं जान पाते हैं। जिस माया के द्वारा भगवान् के साथ भक्तों का योग होता है, उसे योग माया कहते हैं। किन्तु, अन्य लोगों का ज्ञान महामाया द्वारा आवृत होता है, अतः वे मुझे नहीं जान पाते हैं।।26।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

यदि यहाँ यह प्रश्न हो कि भगवान् योगमाया के द्वारा आवृत हैं अर्थात् मुग्ध होते हैं, तो जीव की भाँति उनमें भी अज्ञानता का दोष उपस्थित होता है, तो इसके उत्तर में कहा जा रहा है कि मेरे तेज के द्वारा अभिभूत मेरे अधीन रहने वाली माया दूर से ही यवनिका (पर्दा) के रूप में मेरी सेवा में नियुक्त रहती है। उस माया के द्वारा मेरी कोई विकृति नहीं होती। माया भगवान के ज्ञान को ढक नहीं सकती, इसी को समझाने के लिए श्री भगवान् पुनः कह रहे हैं कि मैं भूत-भविष्य-वर्तमान सब कुछ जानता हूँ, किन्तु साधारण लोगों की बात ही क्या महारुद्रादि सर्वज्ञ व्यक्ति भी मुझे सम्पूर्ण रूप से नहीं जान पाते, क्योंकि उनका ज्ञान योग माया द्वारा आच्छादित रहता है। इसीलिए साधारण लोग कृष्ण के इस मध्यमाकार श्याम सुन्दर रूप को नित्य नहीं मानते। यहाँ तक कि कृष्ण के निर्विशेष प्रकाश रूप ब्रह्म और अंश स्वरूप परमात्मा को जानकर भी योग माया की कृपा या आश्रय के बिना श्री कृष्ण-तत्त्व और उनकी लीलाओं का दर्शन असम्भव है।।26।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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