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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥25॥
मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ। उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ।
भावानुवाद- यदि अर्जुन प्रश्न करे कि अच्छा, आप नित्य रूप, गुण, लीलामय हैं, तो उन लीला आदि की स्थिति सर्वकाल में गोचर क्यों नही होती है ? तो इसके उत्तर में श्री भगवान् कहते हैं - ‘नाहम्’ इत्यादि। मैं प्रत्येक देश, प्रत्येक काल और प्रत्येक व्यक्ति के निकट प्रकाशित नहीं होता हूँ। जिस प्रकार निरन्तर विद्यमान रहने पर भी सूर्य सुमेरु पर्वत के आवरण वश सर्वदा लोगों के दृष्टिगोचर नहीं होता है, उसी प्रकार मैं गुण, लीला, परिकर आदि सहित नित्य विराजमान रहने पर भी योगमाया द्वारा आवृत्त होने के कारण कभी-कभी किसी-किसी ब्रह्माण्ड में प्रकट होता हूँ, सर्वत्र और सर्वदा नहीं। यदि कहो कि समस्त ज्योतिश्चक्र में विराजमान होकर भी सूर्य ज्योतिश्चक्र में विराजमान सर्वकाल देशवर्ती लोगों को गोचर नहीं होता, जैसे कि भारत आदि खण्ड देशों के भी लोगों को कभी-कभी दिखाई नहीं देताा, उसी प्रकार स्वधाम में स्वरूप सूर्य आप जैसे सर्वदा दृष्टिगोचर हैं, वैसे मथुरा, द्वारका आदि धाम समूह में स्थित वहाँ के लोगों के निकट अभी क्यों नहीं दृष्ट होते हैं, तो इसका उत्तर है - यदि ज्योतिश्चक्र के बीच सुमेरु पर्वत रहे, तो पर्वत के द्वारा आवृत सूर्य दृष्ट नहीं होगा। मथुरा आदि कृष्ण सूर्य के धाम में सुमेरु स्थानीय योग माया सर्वदा वर्तमान है। इसके द्वारा आवृत कृष्ण रूप सूर्य निरन्तर दृष्टि गोचर नहीं होता है, किन्तु कभी-कभी उन सबके गोचर होता है। इसलिए मूर्ख लोग मेरे श्याम सुन्दर वसुदेव तनय होने पर अज और अव्यय मुझे मायिक जन्म आदि से रहित नहीं जान पाते हैं। अतएव वे अन्त में कल्याण गुण समुद्र मुझे परित्याग कर मेरे निर्विशेष स्वरूप ब्रह्म की उपासना करते हैं।।25।।
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