श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय
श्रीबलदेव विद्याभूषण इस श्लोक की टीका में निम्नलिखित विचार प्रकट करते हैं- आर्त आदि त्रिविध भक्त मेरी भक्ति के अनुष्ठान के फलस्वरूप अनेक जन्मों तक उत्तम विषयानन्द को भोगकर अन्त में उसके विरक्त होकर किसी जन्म में मेरे स्वरूपतत्त्व को जानने वाले वैष्णवों के संग में मेरे स्वरूप का ज्ञान प्राप्तकर वसुदेवतनय मुझ कृष्ण को ही परम तत्त्व जानकर मेरे शरणागत होते हैं।
“जीवसमूह अनेक जन्मों तक साधन करते-करते ज्ञान लाभ करते हैं अर्थात् चैतन्यनिष्ठ होते हैं। चैतन्यनिष्ठ होने के समय सर्वप्रथम थोड़े परिमाण में जड़त्यागकालीन ‘अद्वैत-भाव’ का अवलम्बन करते हैं, उस समय जड़ीय-विशेष के प्रति घृणाप्रयुक्त विशेष-धर्म के प्रति उदासीन होते हैं। चैतन्य-धर्म में थोड़ी अवस्थिति होते ही चैतन्य के विशेष धर्म को जानकर उसमें अनुरक्त् होते हैं। अनुरक्त होकर वे परम चैतन्यरूप मेरी प्रपत्ति स्वीकार करते हैं। उस समय वे ऐसा सोचते हैं कि यह जड़-जगत् स्वतन्त्र नहीं है, बल्कि यह तो चैतन्य वस्तु का एक हेय प्रतिफलन मात्र है-इसमें भी वासुदेव-सम्बन्ध है। अतएव समस्त (वस्तुएँ) ही ‘वासुदेवमय’ हैं। जिनकी ऐसी भगवत् प्रपत्ति है-वे महात्मा अत्यन्त दुर्लभ हैं।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।19।।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया॥20॥
जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं।
भावानुवाद-अच्छा, आर्त्त आदि सकाम व्यक्तिगण भी भगवान् आपका भजनकर कृतार्थ की भाँति हो जाते हैं, इसे मैंने समझ लिया, किन्तु जो आर्तादि व्यक्तिगण अपने दुःख-कष्टों को दूर करने के लिए देवताओं का भजन करते हैं, उनकी क्या गति होती है? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान् ‘कामैः’ इत्यादि चार श्लोकों को कह रहे हैं। जो ऐसा समझते हैं कि सूर्यादि देवता रोगादि से शीघ्र निवारण करते हैं, किन्तु विष्णु ऐसा नहीं करते हैं-वे ‘हृतज्ञानाः’ अर्थात् भ्रष्टबुद्धिवाले हैं। वे अपनी प्रकृति (स्वभाव) के द्वारा वशीभूत होते हैं, उनकी दुष्टा प्रकृति ही उन्हें मेरी शरणागति से विमुख रखती है।।20।।
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