श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 222

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥17॥
इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है।

भावानुवाद-चार प्रकार के भक्ति के अधिकारियों में कौन श्रेष्ठ हैं? इसके उत्तर में श्रीभगवान कहते हैं-उनमें वे ज्ञानी ही श्रेष्ठ हैं, जो मुझमें नित्य युक्त हैं। ज्ञानाभ्यास द्वारा उनका चित्त वशीकृत होने के कारण उनका मन एकाग्रचित्त रहता है। किन्तु आर्त्तादि अन्य तीन प्रकार के लोग ऐसे नहीं होते हैं। तब क्या समस्त ज्ञानिगण ही ज्ञान विफल होने के भय से आपका ही भजन करत हैं? इसके उत्तर में कहते हैं-एकभक्ति-‘एका’ अर्थात् मुख्या भक्ति ही जिनकी प्रधानीभूता है, न कि अन्य ज्ञानियों की भाँति जिनका ज्ञान ही प्रधानीभूत है-वे मेरा भजन करते हैं अथवा एकमात्र भक्ति में ही जो आसक्त हैं, जिनकी भक्ति एक है-वे नाममात्र के ही ज्ञानी हैं।

इस प्रकार श्यामसुन्दराकार मैं ज्ञानियों को अतिशय प्रिय होता हूँ। वे साधन और साध्य दोनों ही अवस्थाओं में इसका परिहार करने में असमर्थ हैं- ‘ये यथा माम प्रपद्यन्ते’[1]-इसके अनुसार वे मुझे भी प्रिय हैं।।17।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- “कषायशून्य आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी भी मेरे परायण होकर ‘भक्त’ होते हैं। किन्तु उनमें से ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान-कषाय का परित्यागकर शुद्धज्ञान प्राप्तकर भक्तियोगयुक्त होकर अन्यान्य तीन प्रकार के भक्तों की अपेक्षा श्रेष्ठता प्राप्त करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि स्वभावतः ज्ञानाभ्यास द्वारा चैतन्यस्वरूप जीव का स्वरूप जितना विशुद्ध होता है, कर्मी इत्यादि के कर्म-कषायादि दूर होने पर भी उनके स्वरूप की स्थिति उतनी विशुद्ध नहीं होती है। भक्त के संग से अन्त में सभी को स्वरूप की अवस्थिति प्राप्त होती है। साधन दशा में उक्त चार प्रकार के अधिकारियों में ‘एकभक्ति’ विशिष्ट ज्ञानी-भक्त ही मेरे विशुद्ध दास हैं एवं मैं भी उनका अत्यन्त प्रिय हूँ। श्रीशुकदेवादि के भगवत्-ज्ञान-स्फूर्ति ही इसके उदाहरण हैं। शुद्ध ज्ञानलब्ध भक्तों का साधनकालीन भगवत्-कैङ्कर्य विशुद्ध चिन्मय होता है, उसमें जड़गन्ध प्रवेश नहीं कर सकता है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।17।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 4/11

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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