श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 212

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥4॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार– ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्न (अपर) प्रकृतियाँ हैं।

भावानुवाद- भक्ति के मत से ‘ज्ञान’ शब्द से भगवान के ऐश्वर्यज्ञान का ही बोध होता है, आत्मज्ञान का नहीं। अतः अपने ऐश्वर्यज्ञान को निरूपित करने के क्रम में ‘भूमि’ इत्यादि दो श्लोकों के द्वारा ‘परा’ और ‘अपरा’ शक्ति के विषय में बता रहे हैं। भूमि आदि शब्द से पन्चमहाभूत और गन्ध आदि सूक्ष्म भूतसमूह को एक साथ समझना चाहिए। अहंकार शब्द से उनके कार्यभूत इन्द्रियों को और उनके कारणभूत महतत्त्व को समझना चाहिए। बुद्धि और मन की प्रधानता के कारण ही तत्त्वसमूह में इनको पृथक्-पृथक् कहा गया है।।4।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-“भगवत्स्वरूप और भगवत-ऐश्वर्यज्ञान का ही नाम ‘भगवत-ज्ञान’ है। उसकी विवृति यह है कि मैं सदा स्वरूप-संप्राप्त शक्तिसम्पन्न तत्त्वविशेष हूँ, ब्रह्म मेरे शक्तिगत एक निर्विशेष भावमात्र है, उसका (ब्रह्म का) स्वरूप नहीं है। सृष्ट जगत की व्यतिरेक चिन्ता से ही ब्रह्म की साम्बन्धिक अवस्थिति है। परमात्मा भी जगत् में मेरे शक्तिगत एक आविर्भाव-विशेष है, फलतः वह भी अनित्य जगत्सम्बन्धी तत्त्वविशेष है, उसका भी नित्य स्वरूप नहीं है। भगवत्स्वरूप ही मेरा नित्य स्वरूप है। उसमें मेरी दो प्रकार की शक्ति का परिचय प्राप्त होता है। एक शक्ति का नाम ‘बहिरंगा’ या ‘मायाशक्ति’ है। जड़-जननी होने के कारण उसे ‘अपराशक्ति’ भी कहा जाता है। मेरी इस ‘अपरा’ या जड़-सम्बन्धिनी शथ्कत की तत्त्व-संख्या को लक्ष्य करना चाहिए। भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश-ये पाँच महाभूत हैं तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-ये पाँच मात्राएँ हैं- इस प्रकार दश तत्त्व गृहीत होते हैं। अहंकार-तत्त्व में कार्यभूत उनकी इन्द्रियाँ और कारणभूत महतत्त्व गृहीत होंगे। केवल तत्त्वसमूह में प्रधानरूप से भिन्न-भिन्न कार्य होने के कारण मन और बुद्धि को तत्त्व के रूप में अलग बताया गया। फलतः वे एक तत्त्व हैं। ये समुदाय ही मेरी बहिरंगा शक्तिगत हैं।”- श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।4।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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