श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- निर्गुणा भक्ति के द्वारा सच्चिदानन्द, ऐश्वर्य-माधुर्य के आधार, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के पूर्ण स्वरूप की अनुभूति होती है। श्रीव्यासजी ने भक्तियोग के द्वारा ही समाधि की अवस्था में भगवत्स्वरूप का पूर्णरूप में दर्शन किया ‘अपश्यत् पुरुषं पूर्णं...’[1] इस पूर्णतम भगतवत्-दर्शन में ब्रह्मज्ञान, परमात्मज्ञान एवं विज्ञान को क्रोड़ीभूत समझना चाहिए। इसलिए भगवत-ज्ञान को जान लेने के बाद कुछ भी अवशेष नहीं रह जाता।
निगुर्ण भक्ति का पर्यायवाची प्रेमाभक्ति है। प्रेमाभक्ति को प्राप्त करने के नौ सोपान हैं
1. श्रद्धा
2. साधुसंग
3. भजनक्रिया
4. अनर्थ निवृत्ति
5. निष्ठा
6. रुचि
7. आसक्ति-यहाँ तक साधन भक्ति है। इसके पश्चात्
8. भाव
9. प्रेम का उदय। यहाँ भगवान में आसक्ति होने से पूर्व ही साधक भक्तों को भज्ञान प्राप्त होता है, वह ऐश्वर्यमय होता है। किन्तु, आसक्ति के परिपक्व होने पर उसके हृदय में माधुर्य का अनुभव होता है-यही विज्ञान है।।2।।
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