श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 210

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- निर्गुणा भक्ति के द्वारा सच्चिदानन्द, ऐश्वर्य-माधुर्य के आधार, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के पूर्ण स्वरूप की अनुभूति होती है। श्रीव्यासजी ने भक्तियोग के द्वारा ही समाधि की अवस्था में भगवत्स्वरूप का पूर्णरूप में दर्शन किया ‘अपश्यत् पुरुषं पूर्णं...’[1] इस पूर्णतम भगतवत्-दर्शन में ब्रह्मज्ञान, परमात्मज्ञान एवं विज्ञान को क्रोड़ीभूत समझना चाहिए। इसलिए भगवत-ज्ञान को जान लेने के बाद कुछ भी अवशेष नहीं रह जाता।

निगुर्ण भक्ति का पर्यायवाची प्रेमाभक्ति है। प्रेमाभक्ति को प्राप्त करने के नौ सोपान हैं

1. श्रद्धा
2. साधुसंग
3. भजनक्रिया
4. अनर्थ निवृत्ति
5. निष्ठा
6. रुचि
7. आसक्ति-यहाँ तक साधन भक्ति है। इसके पश्चात्
8. भाव
9. प्रेम का उदय। यहाँ भगवान में आसक्ति होने से पूर्व ही साधक भक्तों को भज्ञान प्राप्त होता है, वह ऐश्वर्यमय होता है। किन्तु, आसक्ति के परिपक्व होने पर उसके हृदय में माधुर्य का अनुभव होता है-यही विज्ञान है।।2।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 1/7/4

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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