श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
प्रथम अध्याय
अर्जुन उचाव
दृष्ट्वेमान् स्वजनान् कृष्णं युयुत्सून् समवस्थितान् ॥28॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखञ्च परिशुष्यति ।
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! युद्ध की आकांक्षा से एकत्रित इन स्वजनों को देखकर मेरे अंगसमुद्र शिथिल हो रहे हैं तथा मुख भी सुख रहा है।।28।।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥29॥
गाण्डीवं स्नंसते हस्तात् त्वक्चैव परिदह्यते ।
मेरे शरीर में कम्प और रोमाञ्च हो रहा है। हाथ से गाण्डीव स्खलित हो रहा है और त्वचा भी जल रही है।।29।।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ॥30॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
हे केशव! मैं खड़े रहने में असमर्थ हूँ मेरा मन भी भ्रमित हो रहा है। मैं केवल विपरीत (अशुभ) लक्षणों को ही देख रहा हूँ।।30।।
भावानुवाद- यदि कहा जाय कि मैं धन के निमित्त यहाँ निवास कर रहा हूँ - जैसे इस वाक्य में ‘निमित्त’ शब्द प्रयोजनवाची है, वैसे ही इस श्लोक में भी ‘निमित्त’ शब्द प्रयोजनवाची है। इसके बाद युद्ध में विजयी होने पर भी राज्य-प्राप्ति से हमें सुख नहीं होगा। अपितु, इसके विपरीत अनुताप और दुःख ही होगा।।30।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
केशव- यहाँ भक्त अर्जुन भगवान् को केशव शब्द से सम्बोधन कर अपने हृदगत भावों को प्रकाशित कर रहे हैं - “आप केशी आदि प्रमुख दुष्टों का दमन करने पर भी सदा-सर्वदा अपने भक्तों का पालन-पोषण करते हैं। इसलिए मेरे शोक-मोह को दूर कर मेरा भी पालन करें।।”
श्रीमद्भागवत के अनुसार केशव शब्द का एक दूसरा भी गूढ़ तात्पर्य है- वह केवल रसिक वैष्णवों के लिए है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने ‘केशव’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है- ‘केशान् वयते संस्करोतीति’ अर्थात अपनी प्रिया का केश-विन्यास करने के कारण श्री कृष्ण का ही नाम ‘केशव’ है।।30।।
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