श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 205

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥46॥
योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढ़कर होता है। अतः हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।

भावानुवाद- कर्म, ज्ञान और योग-इनमें से क्या श्रेष्ठ है? इसके उत्तर में कहते हैं-तपस्वी अर्थात् कठोर चान्द्रायणादि तपोनिष्ठ व्यक्ति से ज्ञानी अर्थात् ब्रह्म के उपासक श्रेष्ठ हैं। उन ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ परमात्मा के उपासक योगी हैं-यह मेरा मत है। जब योगी ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ हैं, तो कर्मियों की तो बात ही दूर रहे।।46।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

साधारणतः लोगों की धारणा ऐसी होती है कि कर्मी, ज्ञानी, तपस्वी, योगी और भक्त-ये समान हैं। आलोच्य श्लोक में भगवान् इस विषय में अपना विचार स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि ये सभी एक नहीं है, बल्कि इनमें भी श्रेष्ठता का तारतम्य है। सकाम कर्मी अर्थात तपस्वी से निष्काम कर्मयोगी श्रेष्ठ हैं, निष्काम कर्मयोगी से ज्ञानी श्रेष्ठ हैं, ज्ञानी से श्रेष्ठ अष्टांगयोगी हैं तथा भक्तियोगी इन सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, जिसका वर्णन अगले श्लोक में किया जाएगा।।46।।

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥47॥
और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।

भावानुवाद- तब क्या योगियों की तुलना में कोई भी श्रेष्ठ नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं-ऐसा मत कहो-‘योगिनाम्’ इत्यादि। ‘योगिनां’ शब्द में षष्ठी विभक्ति है, किन्तु वह पन्चमी विभक्ति के अर्थ में है जैसे पूर्व के श्लोक में ‘तपस्विभ्यो-ज्ञानिभ्योऽधिकः’ पन्चमी विभक्ति में कहा गया है, उसी प्रकार यहा भी ‘योगिभ्यः’ समझना चाहिए अर्थात् योगियों से भी उत्तम हैं। मेरे भक्त कवेल एक प्रकार के योगी से नहीं, अपितु समस्त प्रकार के योगियों से श्रेष्ठ हैं, चाहे वे योगारूढ़ हों, सम्प्रज्ञात समाधियुक्त हों या असम्प्रज्ञात समाधियुक्त हों। अथवा योग का तात्पर्य है-उपाय अर्थात् कर्म, ज्ञान, तप, योग, भक्ति इत्यादि। इनमें से जो भक्तिपूर्वक मुझे भजते हैं अर्थात् मेरे भक्त हैं, वे ही साधकों में उत्तम हैं। कर्मी, तपस्वी एवं ज्ञानी-ये भी योगी के रूप में स्वीकृत हैं और अष्टांगयोगी योगितर अर्थात् श्रेष्ठ योगी के रूप में स्वीकृत हैं, किन्तु श्रवण-कीर्तन वाले भक्तिमान् योगी ही सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। जैसा कि श्रीमद्भागवत में कथित है- ‘मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः। सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने।।’[1]

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 6/14/5

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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