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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
इस श्लोक में भगवान अर्जुन को ‘पार्थ’ से सम्बोधित कर अपना पर आत्मीय स्वजन मानकर अत्यन्त प्रीतिपूर्वक समझा रहे हैं। ‘तात’ सम्बोधन द्वारा भी अर्जुन के प्रति प्रीति झलक रही है। पिता पुत्ररूप में स्वयं का विस्तार करते हैं, इसलिए उन्हें ‘तत्’ कहते हैं, स्व-अर्थ में ‘तत्’ शब्द में अण् प्रत्यय प्रयुक्त होकर ‘तात्’ पद निष्पन्न होता है। श्रीगुरुदेव भी पुत्र स्थानीय शिष्य को स्नेहपूर्वक ‘तात्’ से सम्बोधित करते हैं। भगवान ने कहा कि जो श्रद्धापूर्वक योग में प्रवृत्त होते हैं, उनकी दुर्गति नहीं होती।
“श्रीभगवान ने कहा- हे पार्थ! वर्तमान में या परवर्त्तीकाल में योग का अनुष्ठान करने वाले का कभी भी विनाश नहीं होता है। कल्याण प्रापक योगानुष्ठान की कभी दुर्गति नहीं होगी। मूल बात यह है कि समस्त मानव दो भागों में विभक्त हैं- अवैध और वैध। जो समस्त व्यक्ति केवल इन्द्रिय-तर्पण करते हैं और किसी विधि के वशीभूत नहीं हैं, वे पशु के समान विधिशून्य हैं। सभ्य हो अथवा असभ्य हो, मूर्ख हो अथवा पण्डित हो, दुर्बल हो अथवा बलवान् हो, अवैध व्यक्ति का आचरण सदा ही पशुतुल्य होता है, उनके कार्यो से किसी प्रकार के लाभ की सम्भावना नहीं है।
वैध लोगों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-कर्मी, ज्ञानी और भक्त। कर्मियों को भी सकाम कर्मी और निष्काम कर्मी-इन दो भागों में विभक्त किया जाता है। सकाम कर्मीगण अत्यन्त क्षुद्र सुखान्वेषी अर्थात् अनित्य सुख के अभिलाषी होते हैं। उन्हें स्वर्गादि की प्राप्ति और सांसारिक उन्नति तो प्राप्त होती है, किन्तु वे समस्त सुख ही अनित्य हैं, अतएव जिसे जीवों का ‘कल्याण’ कहा जाता है, वह उन्हें अप्राप्य है। जड़ से छुटकारा पाने के बाद नित्य आनन्द का लाभ ही जीवों का ‘कल्याण’ है। अतः जिस पर्व में उस नित्यानन्द की प्राप्ति नहीं है, वह पर्व ही निरर्थक है। कर्मकाण्ड में जब उस नित्यानन्द की प्राप्ति का उद्देश्य संयुक्त होता है, तभी कर्म को कर्मयोग कहते हैं। उस कर्मयोग द्वारा चित्तशुद्धि, उसके पश्चात् ज्ञानप्राप्ति, तदनन्तर ध्यानयोग और चडान्त में भक्ति योग प्राप्त होता है।
सकाम कर्म में जो समस्त आत्मसुखों का परित्यागकर क्लेश स्वीकार करने का विधान है, उसके द्वारा कर्मी को भी तपस्वी कहा जाता है। तपस्या जितनी भी हो, परन्तु उसकी अवधि इन्द्रिय-सुख के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। असुरगण तपस्या के द्वारा फल प्राप्तकर इन्द्रियतर्पण ही करते हैं। इन्द्रियतर्पणरूपी सीमा का अतिक्रम करने पर सहज ही जीवों के कल्याण-उद्देश्य कर्मयोग का आगमन होता है। उस कर्मयोग में स्थित ध्यानयोगी का ज्ञानयोगी अधिकांशतः कल्याणकाली होते हैं। सकाम कर्म से जीवों को जो कुछ प्राप्त होता है, अष्टांगयोगी की सभी अवस्थाओं का फल उससे अच्छा होता है।”-श्रीभक्तिवनोद ठाकुर।।40।।
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