श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥36॥
जिसका मन उच्छृंखल है, उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किन्तु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता ध्रुव है। ऐसा मेरा मत है।
भावानुवाद- अब श्रीभगवान् योग के विषय में परामर्श दे रहे हैं। जिसने अभ्यास और वैराग्य द्वारा अपने मन को संयत नहीं किया, उसका योग सिद्ध नहीं होगा। किन्तु, जिन्होंने अभ्यास और वैराग्य द्वारा अपने मन को संयमित कर लिया है, पुनः पुनः साधन के अवलम्बन से दीर्घकाल में उन्हें ‘योग’ अर्थात मन-निरोध-लक्षण रूपी समाधि प्राप्त हो सकती है।।36।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- “मेरा उपदेश यह है कि जो वैराग्य और अभ्यास द्वारा मन को संयत करने की चेष्टा नहीं करते हैं, उनके लिए पूर्वोक्त योग कभी भी संभव नहीं है। किन्तु, जो यथार्थ उपाय का अवलम्बन कर मन को वश में करने का प्रयत्न करते हैं, वे अवश्य ही योग में सिद्ध होते हैं। ‘यथार्थ उपाय के विषय में’ मेरा यही कहना है कि जो भगवदर्पित निष्काम कर्मयोग द्वारा और उसके अंगीभूत मरे ध्यानादि द्वारा चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास करत हैं एवं साथ-ही-साथ जीवन निर्वाह के लिए वैराग्य के साथ विषयों को स्वीकार करते हैं, वे क्रमशः योगसिद्धि प्राप्त करते हैं।”- श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।36।।
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