श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 196

Prev.png

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥33॥
अर्जुन ने कहा– हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, वह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।

भावानुवाद- भगवान् के द्वारा कथित साम्यभाव के लक्षणों को दुष्कर (दुरूह) जानकर अर्जुन ‘योऽयम्’ इत्यादि कह रहे हैं। मैं साम्य द्वारा प्राप्त योग की स्थिति सभी दिशाओं में नहीं देख रहा हूँ अर्थात् यह योग सदा-सर्वदा के लिए नहीं रह सकता है, यह तो मात्र दो-चार दिनों के लिए है। मन की चंचलता ही इसका कारण है। इसी प्रकार अपने सुख-दुःख के समान ही जगत् के अन्य लोगों के सुख-दुःख को समझना चाहिए-इस वाक्य में साम्य कहा गया है। यहाँ जो अपने बन्धु अथवा तटस्थ व्यक्ति हैं, उनके प्रति तो साम्यभाव हो सकता है, किन्तु शत्रु, घातक, द्वेषी एवं निन्दकों के प्रति ऐसा असम्भव है। मैं अपने, युधिष्ठिर और दुर्योधन के सुख-दुःख को सम्पूर्णरूप से एक समान देखने में असमर्थ हूँ। यद्यपि अपने और अपने शत्रुओं के जीवात्मा, परमात्मा, प्राण एवं इन्द्रिययुक्त देहधारी जीवों को विवेक द्वारा एक समान देखा जाता है, परन्तु यह भी दो-चार दिनों के लिए है। क्योंकि, अतिप्रबल और चंचल मन को विवेक द्वारा निग्रह (वशीभूत) नहीं किया जा सकता है, बल्कि ऐसा देखकर विषयासक्त मन ही विवेक को ग्रास बना लेता है।।33।।

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥34॥
हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है।

भावानुवाद- कठोपनिषद[1]में कथित है-‘आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव च’ अर्थात् आत्मा को रथी और शरीर को रथ समझो। श्रुति में कहा गया है कि पण्डितगण शरीर को रथ, इन्द्रियों को भीषण अश्वसमूह, मन को इन्द्रियों का ईश अथवा कर्ता, शब्द-रूप-रस-स्पर्श-गन्धादि मात्राओं को पथ एवं बुद्धि को सारथी कहते हैं। इन वाक्यों के द्वारा यह प्रतीत होता है कि बुद्धि मन को नियन्त्रित करने वाली है। परन्तु अर्जुन इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि प्रमाथी मन बुद्धि को भी भलीभाँति मथ देता है, यदि कहो कि कैसे, तो कहते हैं-जिस प्रकार बलवान् रोग रोग से छुटकारा दिलाने वाली औषधि को ग्रहण नहीं करता है, उसी प्रकार स्वभावतः बलिष्ठ मन विवेकवती बुद्धि को भी ग्रहण नहीं करता है। और भी कहते हैं-मन अति दृढ़ है। जैसे कि छोटी सुई के द्वारा लोहे को सहजता से नहीं भेदा जा सकता है, वैसे ही अतिसूक्ष्म बुद्धि भी मन को सहज ही नहीं भेद सकती है। यह मन वायु के समान है अर्थात् गगन में प्रवाहमान वायु के निग्रह के समान कुम्भक आदि अष्टांगयोग के द्वारा मन को भी निग्रह मेरे लिए अत्यन्त दुष्कर है।।34।।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1/13/3

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः