श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥31॥
जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है।
भावानुवाद- इस प्रकार प्रत्यक्षरूप से मेरी अनुभूति होने के पूर्व की स्थिति में भी सर्वत्र परमात्म-भावना से भजनशील योगी के लिए विधिपालन की बाध्यता नहीं है। परमात्मा ही सब कुछ करने वाले हैं और वे एक ही हैं- जो इस एकत्व का आश्रयकर श्रवण-स्मरणादि द्वारा भजन में युक्त होते हैं, वे शास्त्रविहित कर्म करें या न करें, सब प्रकार से मुझमें ही अवस्थान करते हैं, संसार में नहीं।।31।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
स्थावर और जंग के भेद से विभिन्न प्राणियों के भिन्न-भिन्न शरीर होते हैं। उस प्रत्येक शरीर में जीवात्मा भी पृथक्-पृथक् होता है। इस प्रकार जीव अनन्त हैं-
‘बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।’[1]
अर्थात्, जीव जड़-शरीर में अवस्थित होने पर भी सूक्ष्म और अप्राकृत तत्त्व है। बाल की नोक के सौ टुकड़े, पुनः उनमें से एक टुकड़े के सौ टुकड़े करने पर उनमें एक भाग जितना सूक्ष्म हो सकता है, जीव उससे भी अधिक सूक्ष्म होता है।
इतना सूक्ष्म होने पर भी जीव अप्राकृत वस्तु अै तथा आनन्त्य धर्म के योग्य होता है, अन्त अर्थात् मृत्यु, मृत्यु से रहित होना ही ‘आनन्त्य’ अर्थात् मोक्ष है। किन्तु, परमात्मा एक हैं। वे एक होकर भी असंख्य जीवों के हृदय में अन्तर्यामी एवं साक्षी रूप में विराजमान रहते हैं। स्मृति में भी ऐसा देखा जाता है-
‘एक एव परो विष्णुः सर्वव्यापी न संशयः।
ऐश्वर्याद्रूपमेकन्च सूर्यवद्बहुधेयते।।’
अर्थात्, सर्वव्यापी विष्णु एक हैं, केवल ऐश्वर्य के प्रभाव से वे एक ही सूर्य की भाँति अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं।
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