श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 191

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय

उस असम्प्रज्ञात समाधि में विषय-इन्द्रिय-सम्पर्क-रहित, आत्माकारबुद्धि-ग्राह्य आत्यन्तिक (नित्य) सुख प्राप्त होता है। उस विशुद्ध आत्मसुख में स्थित योगी का चित्त तत्त्व से और विचलित नहीं होता है। ऐसी अवस्था प्राप्त न कर सकने पर अष्टांगयोग से जीव का कल्याण नहीं होता है, क्योंकि उसमें विभूति आदि के रूप में जो अवान्तर फल हैं, उनमें चित्त के आकर्षित होने पर योगी का चित्त समाधि सुख रूप चरम उद्देश्य से विचलित हो जाता है। इन सभी बाधाओं के कारण योगसाधन के समय अनेक अमंगल घटित होने का भय रहता है। किन्तु, भक्तियोग में ऐसी आशंका नहीं है-इसे बाद में बताया जाएगा। समाधि में प्राप्त सुख की अपेक्षा योगी अन्य किसी सुख का श्रेष्ठ नहीं मानते हैं अर्थात् देहयात्रा निर्वाह के समय विषयों के साथ इन्द्रिय-संस्पर्श द्वारा जो समस्त क्षणिक सुख उत्पन्न होते हैं, उन्हें तुच्छ सुख के रूप में ही स्वीकार करते हैं एवं दुर्घटना, पीड़ा, अभाव और मृत्युकाल तक अन्य गुरुतर दुःखों को सहन कर अपने अन्वेषणीय समाधि-सुख का भोग करते हैं, उन समस्त दुःखों से परिचालित होकर परम सुख का त्याग नहीं करते हैं। वे सोचते हैं- ये दुःख उपस्थित हुए हैं, परन्तु ये अधिक समय तक नहीं रहेंगे, शीघ्र ही चले जाएँगे। योगफल प्राप्त होने में विलम्ब हो रहा है या व्याघात होगा-ऐसी बात सोचकर योगाभ्यास का परित्याग नहीं करेंगे अर्थात् योगफल के प्राप्त होने तक विशेष यत्न से अध्यवसाय का पालन करेंगे।

योग के विषय में प्राथमिक कार्य यह है कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, सिद्धफल एवं संकल्पजनित कामनाएँ सम्पूर्णरूप से दूरकर मन के द्वाना इन्द्रियों को नियमित करेंगे। ‘धारणारूप’ अंग से लब्धबुद्धि द्वारा क्रमशः वैराग्य की शिक्षा करेंगे-इसका ही नाम ‘प्रत्याहार’ है। ध्यान, धारणा और प्रत्याहार द्वारा मन को भलीभाँति वशीभूतकर ‘आत्मसमाधि’ करेंगे। उस स्थिति में अन्य किसी प्रकार के विषयों की चिन्ता नहीं करेंगे एवं देहयात्रा के लिए विषयादि की चिन्ता करने पर भी उसमें आसक्त नहीं होवेंगे-यही उपदिष्ट हुआ, यही योग का अन्तिमकृत्य है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।20-25।।

यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।

भावानुवाद-यदि पूर्व जन्मों के संस्कार-दोष के कारण रजोगुण के स्पर्श से मन चंचल भी हो जाय, तो पुनः योगाभ्यास करे। इसके लिए ही ‘यतो यतो’ इत्यादि कह रहे हैं।।26।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- मन के चंचल होने पर अर्थात विषयों की ओर धावित होने पर यह जिन-जिन विषयों के प्रति धावित होता है, साधक तत्क्षण मन को उन-उन विषयों से हटाकर आत्म-विषय में ही नियुक्त करेंगे।।26।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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