श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥1॥
श्रीभगवान ने कहा– जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न कर्म करता है।
भावानुवाद- षष्ठ अध्याय में विजितात्मा योगी के योग-प्रकार एवं चंचल मन की निश्चलता का उपाय भी बताया गया है।
अष्टांगयोग के अभ्यास में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए निष्कामकर्म सहसा त्याज्य नहीं है। इसलिए कहते हैं-जो कर्मफल की अपेक्षा से रहित होकर अवश्य कर्तव्य जानकर शास्त्रविहित कर्मों को करते हैं-वे संन्यासी हैं, क्योंकि उन्होंने कर्मफल का संन्यास किया है और चित्त में विषयभोगों का अभाव होने के कारण, वे ही योगी कहलाते हैं। ‘निरग्नि’ अर्थात् अग्निहोत्रादि कर्ममात्र के संन्यास से कोई संन्यासी नहीं कहलाता है। ‘अक्रिय’ अर्थात् दैहिक चेष्टाशून्य अर्द्धनिमीलित नेत्र वाले व्यक्ति-मात्र को योगी नहीं कहा जाता है।।1।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
पंचम अध्याय के अन्त में (अष्टांग) योगसूत्र के रूप में जो तीन श्लोक कहे गये हैं, छठे अध्याय में उन्हीं की विस्तारपूर्वक व्याख्या की जा रही है।
टीका में उद्धृत ‘अग्निहोत्र’- देवताओं के उद्देश्य से अनुष्ठित होने वाला एक विशेष वैदिक यज्ञ है। इसके अनुसार विवाह के अन्त में ब्राह्मण को वसन्तकाल में विहित मन्त्र के द्वारा अग्नि स्थापनपूर्वक होम करना चाहिए। उस समय जिस द्रव्य को ग्रहणकर यज्ञ का संकल्प लिया जाता है, जीवन भर उसी द्रव्य के द्वारा होम करने की विधि है। अमावस्या की रात्रि में यजमान स्वयं जौके माँड़ के द्वारा हेम करेंगे। दूसरे दिनों में कुछ परिवर्तन होने पर भी दोष नहीं होता है। 100 होम के पश्चात् प्रातःकाल में सूर्य और सन्ध्या काल में अग्नि के लिए होम करना कर्तव्य है। अग्नि का ध्यानकर प्रथम पूर्णिमा के दिन दश पोर्णमास याग आरम्भ करना कर्तव्य है। इनमें से पूर्णिमा में तीन और अमावस्या में छः यज्ञों का पालन जीवनभर करना कर्तव्य है। शत्पथ ब्राह्मण में इस यज्ञ का पालन करने वाले के लिए फलप्राप्ति का विषय वर्णन किया गया है।।1।।
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