श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 176

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- “हे अर्जुन! भगवदर्पित कर्मयोग द्वारा ही अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण के शुद्ध होने पर ज्ञान प्राप्त होता है। उस ज्ञान से ‘तत्’-पदार्थ में ज्ञानस्वरूपा भक्ति और गुणातीत ज्ञान द्वारा भक्तिजनित ब्रह्मानुभव क्रमशः प्राप्त होता है-ये सब बातें मैंने तुम्हें पहले ही बताई हैं। अभी शुद्ध अन्तःकरणवाले व्यक्ति के ब्रह्मानुभव साधनरूप अष्टाङ्गयोग को कहूँगा, उसके आभासरूप में कुछ बातों को बता रहा हूँ, उसे श्रवण करो-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि बाह्य विषयों को मन से बहिष्कृतकर अर्थात् प्रत्याहार साधन करते हुए, चक्षुओं को दोनों भृकुटी के मध्य स्थितकर नासिका के अग्रभाग में दृष्टि करनी चाहिए। सम्पूर्ण निमीलन द्वारा निद्रा की आशंका और सम्पूर्ण उन्मीलन द्वारा बहिर्दृष्टि की आशंका होने के कारण अर्द्धनिमीलन द्वारा दोनों नेत्रों को इस प्रकार नियमित करना चाहिए कि भृकुटी के मध्य से नासिकाओं के अग्रभाग पर दृष्टिपात हो। उच्छ्वास-निःश्वासरूप से दोनों नासिका के अन्दर प्राणवायु और अपानवायु परिचालितकर उद्धर्व और अधोगति निरोधपूर्वक उनकी समता का साधन करना चाहिए। इस प्रकार आसीन और मुद्रायुक्त होकर, जितेन्द्रिय, जितमना और जितबुद्धि मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध त्यागपूर्वक ब्रह्मानुभव का अभ्यास करने से गुणातीत जड़मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। अतएव निष्काम कर्मयोग के साधनकाल में अष्टांगयोग का भी ‘तदंग’ (उसके अंग) के रूप में साधन किया जाता है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।27-28।।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥29॥
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है।

भावानुवाद- ज्ञानी के समान ही इस प्रकार के योगी को भी भक्ति से उत्पन्न परमात्म-ज्ञान के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति होती है-‘भोक्तारं’ इत्यादि के द्वारा इसे ही बताया गया है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है-कर्मों के द्वारा किये गये यज्ञसमूह और ज्ञानी के द्वारा कृत तपस्या समूह का भोक्ता अर्थात् पालनकर्ता मैं हूँ। कर्मियों, ज्ञानियों और योगियों के उपास्य, सभी लोकों का महेश्वर अर्थात् महानियन्ता अन्तर्यामी मैं हूँ। मैं सभी जीवों का सुहृद हूँ अर्थात् मैं कृपापूर्वक अपने भक्तों के द्वारा अपनी भक्ति का उपदेश देता हूँ, अतएव भक्तों का उपास्य भी मुझे ही जानो। मैं निर्गुण हूँ, अतएव सत्त्वगुणमय ज्ञान द्वारा मेरा ऐसा अनुभव असम्भव है। मेरा वचन है-‘भक्त्याहमेकया ग्राह्यः’[1]अर्थात् मैं एकमात्र भक्ति द्वारा ही ग्रहणीय हूँ। निर्गुण भक्ति के द्वारा ही योगी अपने उपास्य मुझ परमात्मा को अपरोक्ष रूप में अनुभव कर शान्ति या मोक्ष प्राप्त करते हैं।।29।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 11/14/21

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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