श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 163

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय

यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यञ्च च योगञ्च यः पश्यति स पश्यति॥5॥
जो यह जानता है कि विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है।

भावानुवाद- इसे ही ‘यत्’ इत्यादि से स्पष्ट रूप में कह रहे हैं। ‘सांख्य’ का तात्पर्य है-‘संन्यास’ और ‘योग’ का तात्पर्य है-निष्काम कर्म। यहाँ ‘सांख्यैः’ और ‘योगैः’ इन-बहुवचन प्रयोगों से इनका गौरव प्रकाशित किया गया है। इन दोनों के पृथक होने पर भी जो व्यक्ति विवेक द्वारा इन्हें एक ही दर्शन करते हैं, वे ही दर्शन करते हैं अर्थात् वे ही नेत्रवान (चक्षुष्मान्) पण्डित हैं।।5।।

संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥6॥
भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता। परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।

भावानुवाद- सम्यक् चित्त-शुद्धि हुए बिना ज्ञानियों का संन्याय-ग्रहण दुःखद होता है, किन्तु कर्मयोग ही सुखद है-इस पूर्व इंगित तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिए ‘संन्यासस्तु’ इत्यादि कह रहे हैं। चित्त-वैगुण्य होने पर संन्यास को दुःखदायी कहा गया है। कर्मयोग ही चित्त-वैगुण्य को शान्त करने वाला है। अतः ‘अयोगतः’ अर्थात् चित्त-वैगुण्य प्रशामक कर्मयोग का अभाव होने पर अर्थात् संन्यास में अधिकार नहीं होने से वैसा संन्यास दुःख-प्राप्ति का कारण बन जाता है। इसलिए वार्तिक सूत्रकार ने कहा है-

‘प्रमादिनो बहिश्चित्ताः पिशुनाः कलहोत्सुकाः।
संन्यासिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः।।’

अर्थात प्रमादी, अस्थिरचित्त, दुष्ट तथा कलह में उत्सुक दैवदूषित अन्तःकरणवाले संन्यासी भी दृष्ट होते हैं। श्रीमद्भागवत [1] में भी कहा गया है-“जिन्होंने पाँचों इन्द्रियों तथा मन को वश में नहीं किया है, जिन्हें ज्ञान और वैराग्य नहीं है, वे त्रिदण्डी संन्यासी दोनों लोकों से हाथ धो बैठते हैं।” अतः निष्काम कर्मयोगी ज्ञानी होकर शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।।6।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

चित्तशुद्धि होने के पूर्व संन्यास ग्रहण करने की अपेक्षा निष्काम कर्मयोग का आचरण करना श्रेष्ठ है।।6।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11/18/40

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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