श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥3॥
जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।
भावानुवाद- संन्यास के द्वारा प्राप्त होने वाला मोक्ष, संन्यास के बिना नहीं प्राप्त नहीं होता है-ऐसा नहीं कहा जा सकता है। इसके लिए ही ‘ज्ञेय’ इत्यादि कह रहे हैं। हे महाबाहो! तुम शुद्धचित्त कर्मयोगी को नित्य संन्यासी ही जानो। ‘हे महाबाहो’-इस सम्बोधन से यह भी अभिप्रेत है कि जो मुक्ति की नगरी को जीतने में समर्थ हैं, वे ही महावीर हैं।।3।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
‘कर्मयोग’ क्यों श्रेष्ठ हैं-इस श्लोक में यही प्रतिपादन किया जा रहा है। चित्तशुद्धि हो जाने के कारण कर्मयोगी को नित्य संन्यासी कहा गया है। संन्यास भेष न ग्रहण करने पर भी वे सभी विषयों को तथा स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पितकर सदा भगवत्-सेवा-आनन्द में निमग्न रहते हैं। भोगों में आसक्ति नहीं रहने के कारण तथा कर्मफल की आकांक्षा न रहने के कारण वे राग-द्वेषादि से रहित होकर अनायास ही संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।।3।।
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