श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 154

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥
जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है।

भावानुवाद- किन्तु, शुद्ध अन्तःकरण में उत्पन्न ज्ञान प्रारब्ध के अतिरिक्त अन्य कर्मों का नाश करता है। इसे ही ‘यथा’ इत्यादि के द्वारा सोदाहरण कह रहे हैं।।37।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- ज्ञान के द्वारा प्रारब्ध कर्मों के फल को छोड़कर नित्य, नैमित्तिक, काम्य, विकर्म तथा संचित अप्रारब्धादि समस्त कर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं। वेदान्तदर्शन में भी इसी विचार की पुष्टि की गई है, यथा-

‘तदधिगम उत्तर पूर्वाघयोरश्लेष विनाशौ तद्व्यपदेशात्।’[1]

अर्थात्, ज्ञानी पुरुषों को भी प्रारब्ध का फल भोगना पड़ता है।

किन्तु, श्रील रूपगोस्वामी के अनुसार नाम का आश्रय ग्रहण करने वाले व्यक्ति के, शुद्ध नाम की तो बात दूर रहे, नामाभास से ही संचित, अप्रारब्ध, कूट आदि के साथ-साथ प्रारब्ध कर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं। श्रीरूप गोस्वामी ने श्रीनामाष्टक में ऐसा लिखा है-

‘यद्ब्रह्मसाक्षात्कृतिनिष्ठयापि, विनाशमायाति बिना न भोगैः।
अपैति नाम! स्फुरणेन तत्ते, प्रारब्धकर्मेति विरौति वेदः।।’

अर्थात्, हे नाम! ब्रह्म की अविच्छिन्न तैलाधारावत् ब्रह्म-चिन्ता के द्वारा ब्रह्म-साक्षात्कार करने पर भी जिस प्रारब्ध कर्मफल को भोगना पड़ता है, वह प्रारब्ध कर्मफल आपके स्फूर्तिमात्र से अर्थात् भक्तों की जिह्वा पर स्फुरण होने मात्र से दूर भाग जाता है। इस बात को वेद उच्च स्वर से पुनः पुनः कहते हैं।।37।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्र. सू. 1/4/13

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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