श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्॥30॥
ये सभी यज्ञ के ज्ञातअ हैं एवं यज्ञ के द्वारा पापरहित होकर यज्ञावशेषरूप अविशिष्ट अमृत का भोगकर सनात ब्रह्मा को प्राप्त होते हैं॥30॥
भावानुवाद- ये सभी यज्ञविद् हैं अर्थात उपर्युक्त लक्षण वाले यज्ञों को करते-करते ज्ञान द्वारा ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यहाँ उन यज्ञों का गौण फल बता रहे हैं-यज्ञ के अवशिष्ट जो भोग-ऐश्वर्य-सिद्धि आदि अमृत हैं, उनका भोजन करते हैं। इसी प्रकार मुख्य फल बता रहे हैं-‘ब्रह्म यान्ति’ अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।30।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
यज्ञ का मुख्यफल ब्रह्म की प्राप्ति एवं गौणफल भोग तथा अणिमा इत्यादि सिद्धियों की प्राप्ति है।।30।।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥31॥
हे कुरुश्रेष्ठ! जब यज्ञ के बिना मनुष्य इस लोक में या इस जीवन में ही सुखपूर्वक नहीं रह सकता, तो फिर अगले जन्म में कैसे रह सकेगा?
भावानुवाद- इसके (यज्ञ) न करने से प्रत्यवाय (दोष) होता है। इसके निए ‘नायम्’ इत्यादि कह रहे हैं। जब उसे अल्पसुखदायक मनुष्यलोक ही प्राप्त नहीं है, तो भला किस प्रकार अन्य देवादि लोक प्राप्त होंगे?।।31।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
“अतएव हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ न करने वाले के लिए इहलोक की ही प्राप्ति सम्भव नहीं है, तो परलोक-प्राप्ति किस प्रकार सम्भव होगी? अतएव यज्ञ ही कर्तव्य कर्म है। इससे यही समझना चाहिए कि स्मार्त्त-वर्णाश्रम, अष्टांगयोग एवं वैदिक योगादि सभी ‘यज्ञ’ हैं। ब्रह्मज्ञान भी यज्ञविशेष है। यज्ञ के अतिरिक्त जगत् में और कुछ कर्म नहीं है और यदि कुछ है, तो वह विकर्म है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।31।।
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