श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 146

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन् विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥26॥
इनमें से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओं तथा इन्द्रियों को मन की नियन्त्रण रूपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग (नियमित गृहस्थ) इन्द्रियविषयों को इन्द्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं।

भावानुवाद- अन्ये अर्थात् नैष्ठिक (ब्रह्मचारिगण) कान आदि इन्द्रियों को संयत मनरूप अग्नि में हवन करते हैं, शुद्ध मन में इन्द्रियों को प्रविलापित (भलीभाँति लीन) करते हैं। उनकी अपेक्षा तुच्छ ब्रह्मचारिगण शब्दादि विषयों को इन्द्रियरूप अग्नि में प्रविलापित करते हैं।।26।।

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्म-संयम योगग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥27॥
दूसरे, जो मन तथा इन्द्रियों को वश में करके आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं, सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा प्राणवायु के कार्यों को संयमित मन रूपी अग्नि में आहुति कर देते हैं।

भावानुवाद-‘अपरे’ अर्थात् शुद्ध ‘त्वं’ पदार्थ के ज्ञाता समस्त इन्द्रियों और इन्द्रियों के श्रवण-दर्शनादि कर्मों को, दश प्रकार के प्राणों के कर्मों को आत्मसंयम अर्थात् ‘त्वं’ पदार्थ के संयम (शुद्धि) रूप अग्नि में होम करते हैं अर्थात् मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों और दश प्राणों को भलीभाँति लीन कर देते हैं। उनका भाव यह होता है कि एक प्रत्यगात्मा ही है, इसके अतिरिक्त मन आदि और कुछ नहीं है। दश प्रकार के प्राण एवं उनके कर्म निम्नलिखित है-

क्र. स. नाम कर्म
1. प्राण बहिर्गमन
2. अपान अधोगमन
3. समान खाये-पीये पदार्थों का समीकरण
4. उदान ऊपर ले जाना
5. व्यान सर्वत्र घूमना
6. नाग डकासा (उद्गार)
7. कूर्म आँखें खोलना
8. कृकर खाँसना
9. देवदत्त जम्भाई लेना
10. धनञ्जय मृत्योपरान्त भी शरीर में रहना
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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