श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 144

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मों के योगदान के कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्राप्ति होती है, क्योंकि उसमें हवन आध्यात्मिक होता है और हवि भी आध्यात्मिक होती है।

भावानुवाद- पूर्व श्लोक में कहा गया है कि यज्ञ के लिए कर्म का आचरण करो। “यज्ञ का स्वरूप क्या है?”-इस प्रश्न की अपेक्षा करते हुए श्रीभगवान् ‘ब्रह्म’ इत्यादि कह रहे हें। ‘अर्पणम्’-जिनके द्वारा अर्पण किया जाता है, वे जुह (यज्ञ का चमचा) आदि भी ब्रह्म हैं, जिस हविका अर्पण किया जाता है, वह भी ब्रह्म है। ब्रह्माग्नि’ अर्थात् हवन का अधिकरण या स्थान अग्नि भी ब्रह्म ही है। ‘ब्रह्मणा’ अर्थात् हवनकर्ता भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार विवेकवान् पुरुष के द्वारा ब्रह्म ही गन्तव्य अर्थात् प्राप्त किये जाने योग्य है, कोई और फल नहीं। यदि कहो क्यों, तो उत्तर है-जो कर्म ब्रह्मात्मक है, उससे समाधि अर्थात् चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है, इसलिए कोई अन्य फल प्राप्त नहीं होता है।।24।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- यज्ञकार्य में जिस पात्र से अग्नि में घृत आदि अर्पित किया जाता है, उसे ‘स्रुव’ कहते हैं। यह यज्ञीय पात्रविशेष है। होम के लिए देवता के उद्देश्य से जो सामग्री अर्पित की जाती है, उसे ‘हवि’ कहते हैं।

“यज्ञरूप कर्म से किस प्रकार ज्ञान का उदय होता है, उसे श्रवण करो। यज्ञ जितने प्रकार के होते हैं, उसे बाद में बता रहा हूँ, अभी यज्ञ के मूल तत्त्व के विषय में बता रहा हूँ, श्रवण करो। जड़बद्ध जीव के लिए जड़कार्य अनिवार्य हैं। उस जड़कार्य में जितने परिमाण में चित्-तत्त्व की आलोचना हो सकती है, उसे भलीभाँति करने का नाम ‘यज्ञ’ है। जड़ में चिद्भाव के आविर्भूत होने पर उसे ‘ब्रह्म’ कहते हैं। वह ब्रह्म मेरी ही ज्योति या किरण है। चित्-तत्त्व समस्त जड़-जगत् से विलक्षण है। जब अर्पण, हविः, अग्नि, होता और फल-ये पाँचों ब्रह्म के अधिष्ठान होते हैं, तब यथार्थ यज्ञ होता है। कर्म को ब्रह्मस्वरूप बनाते हुए कर्म में ही जिनकी एकाग्रचित्तरूपी समाधि होती है, वे अपने समस्त कर्मों का अनुष्ठान यज्ञ के रूप में करते हैं। उनके अर्पण, हविः, अग्नि, होता अर्थात् स्वसत्ता-ये सभी ब्रह्मात्मक हैं, अतः उनकी गति भी ‘ब्रह्म’ है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।24।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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