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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
“मूर्ख व्यक्ति मेरे जन्म, कर्म और शरीर के चिन्मयत्व तथा विशुद्धत्व के विचार के सम्बन्ध में तीन प्रवृत्तियों से परिचालित होते हैं, यथा-दूसरी वस्तु में राग, भय और क्रोध। जिनकी बुद्धि अत्यन्त जड़-बद्ध है, वे जड़-तत्त्व में इतने दूर तक अनुराग का प्रकाश करते हैं कि चित्-तत्त्व के नाम से कोई नित्य वस्तु है-इसे स्वीकार ही नहीं करते हैं। ऐस व्यक्ति स्वभाव को ही परमतत्त्व कहते हैं। इनमें से कोई-कोई जड़ को ही नित्य कारण बताकर इसे चित्-तत्त्व के जनक के रूप में निर्दिष्ट करते हैं। ये समस्त जड़वादी, स्वभाववादी या चैतन्यहीन विधिवादिगण अन्य (वस्तु में) राग से परिचालित होकर परमतत्त्व रूप चित्-राग से शनैः शनैः वन्चित हो जाते हैं। कोई-कोई विचारक चित्-तत्त्व को एक नित्य पदार्थ के रूप में स्वीकार तो करते हैं, किन्तु सहज ज्ञान का परित्यागकर सर्वदा युक्ति का आश्रय ग्रहण करते हैं। वे जड़ के जितने भी प्रकार के गुण और कर्मों को देखते हैं, असत् कहते हुए उन सबका सतर्कतापूर्वक परित्याग कर अस्फुट, जड़-विपरीत के नाम से एक अनिर्देश्य ब्रह्म की कल्पना करते हैं।
वह और कुछ नहीं, अपितु मेरी माया का व्यतिरेक प्रकाश मात्र है। वह मेरा नित्य स्वरूप नहीं है। बाद में वे इस भय से मेरे स्वरूप-ध्यान और स्वरूप-लिंग पूजा को छोड़ देते हैं कि कहीं इस ध्यान और चिन्ता से किसी प्रकार के जड़ धर्म का आश्रय न हो जाय। इस भय के कारण वे परमतत्त्व के स्वरूप से वन्चित हो जाते हैं। और कोई-कोई जड़ से अतीत किसी वस्तु को स्थिर (निर्दिष्ट) न कर पाने के कारण क्रोधाविष्ट चित्त से शून्य और निर्वाण को ही परमतत्त्व के रूप में स्थिर करते हैं। बौद्ध-जैनादि मत इससे ही उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार राग, भय और क्रोध से रहित होकर मुझे ही सर्वत्र दर्शन करते हुए और भलीभाँति मेरे शरणागत होकर पूर्वोक्त ज्ञान अंगीकार कर एवं पूर्वोक्त कुयुक्ति विषदाह सहनरूप ताप से पवित्र होकर बहुत लोगों ने मेरे पवित्र प्रेम को प्राप्त किया है।“-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।10।।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥11॥
जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
भावानुवाद- यदि प्रश्न हो कि आपके एकान्त भक्तगण ही आपके जन्म-कर्म को नित्य समझते हैं। किन्तु, ज्ञानी आदि कोई-कोई ज्ञान आदि की सिद्धि के लिए आपका आश्रय ग्रहण करते हैं, वे आपके जन्म-कर्म की नित्यता को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका क्या होता है, तो इसके प्रत्युत्तर में श्रीभगवान् कहते है।-‘ये यथा’ इत्यादि अर्थात् जिस प्रकार मेरा आश्रय लेता है या भजन करता है, मैं भी उसी प्रकार उन लोगों का भजन करता हूँ अर्थात् भजनफल प्रदान करता हूँ। मैं प्रभु हूँ और मेरा जन्म-कर्म नित्य ही है-जो व्यक्ति मेरे बारे में ऐसा सोचकर उन लीलाओं में विशेष मनोरथ के साथ मेरा भजन (सेवा) करके सुख प्रदान करते हैं, मैं भी करने, न करने तथा अन्यथा करने में समर्थ ईश्वर होने के कारण उनके भी जन्म-कर्म को नित्य बनाते हुए उन्हें अपना पार्षद बना लेता हूँ और यथासमय उनके साथ अवतीर्ण होकर एवं अन्तर्धान होकर अनुक्षण उनके प्रति अनुग्रह करते हुए प्रेम के रूप में उनके भजन (सेवा) का फल प्रदान करता हूँ। ज्ञानी आदि व्यक्ति जो मेरे जन्म-कर्म को नश्वर और मेरे श्रीविग्रह को मायामय मानकर मेरा आश्रय लेते हैं, मैं भी उन्हें पुनः पुनः नश्वर, जन्म-कर्मशील माया के जाल में पतितकर जन्म-मृत्युरूप दुःख प्रदान करता हूँ। किन्तु, जो ज्ञानी मेरे जन्म-कर्म को नित्य और मेरे विग्रह को सच्चिदानन्द जानकर अपने ज्ञान की सिद्धि के लिए मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, स्थूल और लिंग शरीरों का त्याग चाहने वाले उन मुमुक्षुओं को ब्रह्मानन्द प्रदानकर अविद्या से उत्पन्न जन्म-मृत्यु का नाश भजनफल के रूप में देता हूँ। अतएव ऐसा नहीं है कि केवल मेरे भक्तगण ही मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, अपितु ज्ञानी, कर्मी, योगी, त्यागी, देवतोपासक-सभी श्रेणी के लोग मेरे पथ का अनुसरण करते हैं। मैं सर्वस्वरूप हूँ, अतः ज्ञान-कर्मादि सभी मेरे ही पथ हैं।।11।।
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