श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 126

Prev.png

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥5॥
श्रीभगवान ने कहा– तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं। मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है।

भावानुवाद-मैंने अन्य अवतारों में भी उपदेश दिया है-इसी अभिप्राय से श्रीभगवान् ‘बहूनि’ इत्यादि कह रहे हैं। ‘तव च’ अर्थात् जब-जब मेरा अवतार हुआ, तब-तब मेरे पार्षद के रूप में तुम्हारा भी आविर्भाज हुआ है। सर्वज्ञ और सर्वेश्वर होने के कारण मैं उन सबको जानता हूँ। अपनी लीलासिद्धि के लिए मैंने तुम्हारे ज्ञान को आवृत कर दिया है, अतः तुम इन्हें नहीं जानते हो। अतएव हे परन्तप! अभी तुम कुन्तीपुत्र के अभिमान से ‘पर’ अर्थात् शत्रुओं को ताप प्रदान कर रहे हो।।5।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बता रहे हैं कि आज से पहले भी मेरे बहुत-से अवतार हो चुके हैं। उनमें मेरे भिन्न-भिन्न नाम, भिन्न-भिन्न रूप और भिन्न-भिन्न लीलाएँ प्रकाशित हुई हैं। मुझे उन सब बातों की पूर्णरूप से स्मृति है। तुम भी मेरे साथ में अवतरित हुए थे, किन्तु जीवतत्त्व होने के कारण तुम्हें उन बातों की स्मृति नहीं है। श्रीगर्गाचार्य ने भी श्रीकृष्ण के नामकरण के समय कृष्ण के बहुत से नाम, रूप तथा लीलाओं की पुष्टि की है-

‘बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः।।’(श्रीमद्भा. 10/8/15)

अर्थात् गुण और कर्म के अनुरूप तुम्हारे इस पुत्र के अनेक नाम और रूप हैं, मैं उनसे अवगत हूँ, अन्य लोग नहीं। भगवान ने मुचुकुन्द को भी ऐसा ही कहा है-

‘जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽंग सहस्रशः।’[1]

हे प्रिय मुचुकुन्द! मेरे नाम, जन्म-कर्मादि अनन्त प्रकार के हैं।।5।।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10/51/36

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः