श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 109

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय

पुत्रांश्च शिष्यांश्च नृपो गुरुः पिता मल्लोककामो मदनुग्रहार्थः।
‘इत्यं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान्न योजयेत्कर्मसु कर्ममूढ़ान्।
कं योजयन्मनुजोऽर्थदं लभेत निपातयन्नष्टदृशं हि गर्ते।।’[1]

अर्थात ऋषभदेव ने कहा-मेरा धाम और मेरी कृपा ही एकमात्र प्रार्थनीय होने पर पिता पुत्रों को, गुरु शिष्यों को और राजा प्रजाओं को मेरी भक्ति की शिक्षा देंगे। उपदेश ग्रहण करने वाला व्यक्ति यदि उपदेश के अनुसार कार्य न भी करे, तो उसके प्रति क्रोध नहीं करना चाहिए। कर्मविमूढ़ तत्त्वज्ञान से रहित व्यक्तियों को भी कर्म में नियुक्त नहीं करना चाहिए। मोहान्ध व्यक्ति को काम्यकर्म में नियुक्त कर संसारकूप में गिरा देने से किस पुरुषार्थ की प्राप्ति होगी अर्थात् किसी भी पुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं होगी। श्रीधर स्वामी ने इस श्रीमद्भागवतीय श्लोक की टीका में कहा है कि भक्ति के अतिरिक्त कर्म में प्रवृत्त होने का उपदेश देने से प्रत्यवाय [2]होता है। गीता[3]में ‘योजयेत् सर्वकर्माणि’ ज्ञान का उपदेश देने वालों के लिए समझना चाहिए, भक्ति उपदेशकों के लिए नहीं-श्री चक्रवर्ती ठाकुर का ऐसा विचार है।।26।।

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥27॥
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जबकि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।

भावानुवाद- अच्छा, यदि विद्वान् को भी कर्म करना पड़ता है, तो विद्वान् और अविद्वान् में क्या अन्तर है? ऐसी आशंका कर ‘प्रकृति’ इत्यादि दो श्लोकों के द्वारा उनका अन्तर दिखाया जा रहा है। अविद्वान् व्यक्ति प्रकृति के गुणों के द्वारा कार्यशील इन्द्रियों के द्वारा किये जा रहे सभी कर्मों को स्वयं के द्वारा किया हुआ मानते हैं।।27।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 5/5/15
  2. पाप
  3. 3/26

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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