श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
श्रीभगवानुवाच:
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:॥1॥
श्रीभगवान् बोले- कौन्तेय! यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा जाता है, जो इस क्षेत्र को जानता है, उसको उसे जानने वाले ज्ञानी पुरुष क्षेत्रज्ञ ऐसा कहते हैं।।1।।
इदं शरीरं देवः अहम्, मनुष्यः अहम्, स्थूलः अहम्, कृशः अहम्, इति आत्मना भोक्त्रा सह सामानाधि करण्येन प्रतीयमानं भोक्तुः आत्मनः अर्थान्तरभूतं तस्य भोक्तुः आत्मनः अर्थान्तरभूतं तस्य भोगक्षेत्रम् इति शरीरयाथात्म्यविदद्भि: अभिधीयते।
यह शरीर जो कि मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं स्थूल हूँ मैं कृश हूँ, इस प्रकार भोक्ता आत्मा के साथ सामानाधि करणता से एक-सा प्रतीत होता है और वास्तव में भोक्ता आत्मा से भिन्न पदार्थ है। यह (शरीर) उस भोक्ता आत्मा का भोगक्षेत्र है। इस प्रकार शरीरतत्त्व को यथार्थतया जानने वाले कहते हैं।
एतद् अवयवशः संघातरूपेण च इदम् अहं वेद्मि इति यो वेत्ति तं वेद्य- भूताद् अस्माद् वेदितृत्वेन अर्थान्तरभूतं क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः- आत्मयाथात्म्यविदः प्राहुः।
जो इस शरीर को इसके सारे अवयवों को अलग-अलग तथा संघातरूप से इस प्रकार जानता है कि ‘मैं इसको जानता हूँ’ वह इस जानने में आने वाले शरीर का जानने वाला होने के कारण इससे भिन्न पदार्थ है, उसको आत्मतत्त्व के यथार्थ ज्ञाता पुरुष ‘क्षेत्रज्ञ’ नाम से कहते हैं।
यद्यपि देहव्यतिरिक्तघटार्थानुसन्धानवेलायाम् देवः अहम्, मनुष्यः अहम्, घटादिकं जानामि इति देह सामानाधिकरण्येन ज्ञातारम् आत्मानम् अनुसन्धत्ते; तथापि देहानुभव वेलायां देहम् अपि घटादिकम् इव इदम् अहं वेद्यि इति वेद्यतया वेदिता अनुभवति इति वेत्तुः आत्मनो वेद्यतया शरीरम् अपि घटादिवद् अर्थान्तरभूतम्; तथा घटादेः इव वेद्यभूतात् शरीरम् अपि वेदिता क्षेत्रज्ञः अर्थान्तरभूतः।
समानाधिकरण्येन प्रतीतिः तु वस्तुतः शरीरस्य गोत्वादिवद् आत्मविशेषणतैकस्वभावतया तद पृथक्सिद्धेः उपपन्ना। तत्र वेदितुः असाधारणाकारस्य चक्षुरादिकरणाविषयत्वाद् योगसंस्कृतमनोविषयत्वात् च, प्रकृतिसन्निधानाद् एव मूढाः प्रकृत्याकारम् एव वेदितारं पश्यन्ति। तथा च वक्ष्यति-
‘उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्। विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।’[1] इति ।।1।।
यद्यपि मनुष्य जब शरीर से अतिरिक्त घटादि पदार्थों का अनुभव करता है उस समय मैं देव हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं घटादि को अनुभव करता हूँ, इस प्रकार शरीर के सहित अपने को समानाधि करणता से जानने वाला समझता है। परन्तु जब ज्ञाता आत्मा शरीर का अनुभव करता है, उस समय शरीर को भी घटादि पदार्थों की भाँति ‘इसको मैं जानता हूँ’ इस प्रकार ज्ञेयरूप से अनुभव करता है। अतएव शरीर भी ज्ञाता आत्मा का ज्ञेय रूप होने के कारण वस्तुतः घटादि की भाँति आत्मा से भिन्न पदार्थ ही है, और वैसे ही घटादि की भाँति जानने में आने वाले शरीर से ‘ज्ञाता’ ‘क्षेत्रज्ञ’ भी भिन्न पदार्थ है।
समानाधिकरणता से जो एकता प्रतीत होती है उसका कारण यह है कि वास्तव में आत्मा का विशेषण होकर रहना ही गोत्व आदि की भाँति शरीर का एक मात्र स्वभाव है, इसीलिये वह आत्मा से अभिन्न सिद्ध होता है। क्योंकि असाधारण आकारवाला ज्ञाता आत्मा चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय नहीं है, केवल योग के द्वारा विशुद्ध हुए मन का ही विषय है। अतः प्रकृति की समीपता के कारण ही मूर्खलोग (उस) ज्ञाता आत्मा को प्रकृति के रूप में ही देख पाते हैं। (उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाते) यही बात इस प्रकार कहेंगे-
‘उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्। विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।’ ।।1।।
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