श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
उक्तः कर्मयोगः सपरिकरः; इदानीं ज्ञानकर्मयोगसाध्यात्मावलोकन रूपयोगाभ्यासविधिः उच्यते। तत्र कर्मयोगस्य निरपेक्षयोगसाधनत्वं द्रढयितुं ज्ञानाकारः कर्मयोगो योगशिरस्कः अनूद्यते-
अंगों सहित कर्मयोग का वर्णन किया गया; अब (इस षष्ठ अध्याय में) ज्ञानयोग और कर्मयोग से सिद्धि होने वाले आत्मसाक्षात्काररूप योग के अभ्यास की विधि बतलायी जाती है। वहाँ पहले ‘कर्मयोग आत्मसाक्षात्काररूप योग का निरपेक्ष (दूसरे की अपेक्षा न रखने वाला) साधन है।’ इस भाव को दृढ़ करने के लिये ‘योग’ शीर्षक ज्ञानस्वरूप कर्मयोग का अनुवाद किया जाता है-
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ॥1॥
श्रीभगवान बोले- कर्मफल का आश्रय न लेने वाला जो पुरुष कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि अग्निरहित और क्रियारहित पुरुष।। 1।।
कर्मफलं स्वर्गादिकम् अनाश्रितः कार्य कर्मानुष्ठानमेव कार्य सर्वात्मनास्मत्सुहृद्भूतपरमपुरुषाराधनरूपतया कर्मैव मम प्रयोजनं न तत्साध्यं किञ्चिद् इति यः कर्म करोति, स सन्न्यासी च ज्ञानयोगनिष्ठश्च योगी च कर्मयोग निष्ठश्च। आत्वावलोकनरूपयोग साधनभूतोभयनिष्ठ इत्यर्थः। न निरग्निर्न चाक्रियः -न चोदितयज्ञादिकर्मसु अप्रवृत्तः, केवलज्ञाननिष्ठः; तस्य हि ज्ञाननिष्ठा एव कर्मयोगनिष्ठस्य तु उभयम् अस्ति इति अभिप्रायः।। 1।।
(जो पुरुष) स्वर्गादि कर्मफलों का आश्रय न लेकर कर्तव्य समझकर-कर्मानुष्ठान ही करने योग्य है-‘हमारे सर्वथा सुहृद् रूप परमपुरुष की सेवा होने के कारण कर्म करना ही मेरा प्रयोजन है, उनके द्वारा साध्य फल से तनिक भी नहीं’ इस भाव से जो कर्म करता है, वह संन्यासी-ज्ञानयोगनिष्ठ भी है और योगी- कर्मयोगनिष्ठ भी है और योगी- कर्मयोगनिष्ठ भी। अभिप्राय यह कि आत्मसाक्षात्कार रूप योग के साधन भूत (ज्ञानयोग और कर्मयोग) दोनों में ही स्थित है। निरग्नि और अक्रिय रहने वाला पुरुष नहीं अर्थात् जो शास्त्रोक्त यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त नहीं है- केवल ज्ञाननिष्ठ है, वह उभयनिष्ठ नहीं है। तात्पर्य यह कि उसमें केवल ज्ञान-निष्ठा है; किन्तु कर्मयोगनिष्ठ में दोनों हैं।। 1।।
उक्तलक्षणे कर्मयोगे ज्ञानम् अपि अस्ति, इत्याह-
पूर्वाक्त लक्षण वाले कर्मयोग में ज्ञान भी रहता है, यह कहते हैं-
|