श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 101

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय

तृतीये अध्याये प्रकृतिसंसृष्टस्य मुमुक्षोः सहसा ज्ञानयोगे अनधिकारात् कर्मयोग एव कार्यः। ज्ञान योगाधिकारिणः अपि अकर्तृत्वानु सन्धानपूर्वकं कर्मयोग एव श्रेयान् इति सहेतुकम् उक्तम्। विशिष्टतया व्यपदेश्यस्य तु विशेषतः कर्मयोग एव कार्य इति च उक्तम्।

तीसरे अध्याय में युक्त्यिों के साथ यह बतलाया गया कि प्रकृति के संसर्ग से युक्त मुमुक्षु का सहसा ज्ञान योग का अधिकार नहीं होता, इसलिये उसे कर्मयोग ही करना चाहिये तथा ज्ञानयोग के अधिकारी के लिये भी आत्मा के अकर्तापन को समझते हुए कर्मयोग का साधन ही श्रेयस्कर है। साथ ही यह भी कहा गया कि विशिष्ट रूप से कर्मयोग का आचरण करना ही कर्तव्य है।

चतुर्थे तु इदानीम् अस्य एव कर्मयोगस्य निखिलजगदुद्धरणाय मन्वन्तरादौ एव उपदिष्टतया कर्तव्यतां द्रढयित्वा अन्तर्गतज्ञानतया अस्य एव ज्ञानयोगाकारतां प्रदर्श्य, कर्मयोगस्वरूपं तद्भेदाः कर्मयोगे ज्ञानांशस्य एव प्राधान्यं च उच्यते। प्रसंगाच्च भगवदवतारयाथात्म्यम् उच्यते-

अब इस चतुर्थ अध्याय में, ‘मन्वन्तर के आदि में सम्पूर्ण जगत् के उद्धार के लिये कर्मयोग का उपदेश किया गया है’ इस कथन से इस कर्मयोग की ही कर्तव्यता को दृढ़ करके, तथा ज्ञानयोग इसके अन्तर्गत होने के कारण इसकी ज्ञानयोगाकारता भी दिखलाकर, कर्मयोग का स्वरूप, उसके भेद और कर्मयोग में ज्ञान के अंश की ही प्रधानता बतलायी जाती है। साथ ही, प्रसंगवश श्रीभगवान् के अवतार का वास्तविक रहस्य भी कहा जाता है-

श्रीभगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।1।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। 2।।

श्रीभगवान् बोले- इस अविनाशी योग की मैंने सूर्य से कहा था, सूर्य ने (अपने पुत्र) मनु से कहा और मनु ने (अपने पुत्र) इक्ष्वाकु से कहा। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना। (परन्तु) अर्जुन! वह योग बहुत काल से इस लोक में (प्रायः) नष्ट हो गया ।। 1-2।।

यः अयं तव उदितो योगः स केवलं युद्धप्रोत्साहनाय इदानीम् उदित इति न मन्तव्यम्। मन्वन्तरादौ एव निखिलजगदुद्धरणाय परमपुरुषार्थलक्षणमोक्षसाधनतया इमं योगम् अहम् एव विवस्वते प्रोक्तवान्। विवस्वान् च मनवे मनुः इक्ष्वाकवे इति एवं सम्प्रदाय परम्परया प्राप्तम् इमं योगं पूर्वे राजर्षयो विदुः। स महता कालेन तत्तच्छ्रोतृबुद्धिमान्द्याद् विनष्टप्रायः अभूत्।।1-2।।

यह जो कर्मयोग तुझे बलताया गया है, सो केवल इसी समय युद्ध में प्रोत्साहन देने के लिये ही कहा गया हो, ऐसा नहीं मानना चाहिये। मन्वन्तर के आदि में अखिल जगत के उद्धार के लिये मैंने ही परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष के साधनरूप में इस योग को विवस्वान् (सूर्य)-के प्रति कहा था। (फिर) सूर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को इसका उपदेश किया। इस प्रकार सम्प्रदाय परम्परा से प्राप्त इस योग को पूर्वकाल के राजर्षियों ने जाना था। (इधर) बहुत समय से उसे सुनने वालों की बुद्धिमन्दता के कारण यह नष्टप्राय हो गया था।।1-2।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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