श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥1॥
श्रीभगवान बोले- पृथा पुत्र (अर्जुन)! मुझमें आसक्त मन वाला, मेरे ही आश्रित हुआ, मेरी प्राप्ति के साधनरूप योग में लगा हुआ तू बिना सन्देह के जैसे सम्पूर्णतया से मुझे जानेगा, उसे सुन।। 1।।
मयि आभिमुख्येन आसक्तमनाः मत्प्रियत्वातिरेकेण मत्स्वरूपेण गुणैः च चेष्टितेन मद्विभूत्या विश्लेषे सति तत्क्षणाद् एव विशीर्यमाणस्वभावतया मयि सुगाढं बद्धमनाः मदाश्रयः तथा स्वयं च मया विना विशीर्य्य माणतया मदाश्रयः मदेकाधारः मद्योगं युञ्जन् योक्तुं प्रवृत्तो योगविषयभूतं माम् असंशयं निःसंशयं समग्रं सकलं यथा ज्ञास्यसि येन ज्ञानेन उक्तेन ज्ञास्यसि तद् ज्ञानम् अवस्थितमनाः श्रृणु।। 1।।
मेरी सम्मुखता से मुझमें मन को आसक्त करके- मुझमें अत्यन्त प्रेम होने के कारण मेरे स्वरूप से, गुणों से, लीलाओं से और मेरी विभूतियों से वियोग होने पर उसी क्षण अत्यन्त खिन्न हो जाने के स्वभाव से मुझमें मन की विशेष गाढ़ स्थिति वाला होकर और मेरे आश्रित-मेरे वियोग से ही अत्यन्त खिन्न हो जाने के स्वभाव से केवल मुझको ही एकमात्र आधार बनाने वाला होकर, मुझे प्राप्त करने के साधनरूप योग में लगा हुआ तू योग के लक्ष्यरूप मुझ परमेश्वर को बिना सन्देह के समग्रता से जैसे जानेगा-बतलाये हुए जिस ज्ञान से जानेगा, उस ज्ञान को निश्चल मनवाला होकर सुन।।1।।
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत: ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥2॥
मैं तुझको यह ज्ञान विज्ञान के सहित पूर्णरूप से बतलाऊँगा, जिसको जानकर फिर यहाँ और जानने योग्य (कुछ भी) शेष नहीं बचेगा।। 2।।
अहं ते मद्विषयम् इदं ज्ञानं विज्ञानेन सह अशेषतो वक्ष्यामि। विज्ञानं हि विविक्ता कारविषयं ज्ञानम्, यथा अहं मद्वयति रिक्तात् समसतचिदचिद्वस्तुजातात् निखिलहेयप्रत्यनीकतया अनवधिकातिशयासङ्ख्येयकल्याणगुणगणानन्त महाविभूतिया च विविकत्तः तेन विविक्तविषयज्ञानेन सह मत्स्वरूपविषयज्ञानं वक्ष्यामि। किंबहुना यद् ज्ञानं ज्ञात्वा मयि पुनः अन्यद् ज्ञातव्यं न अवशिष्यते।। 2।।
मैं तुझको यह मद्विषयक ज्ञान विज्ञान के सहित निःशेषरूप से बतलाऊँगा। प्रकृतिसंसर्गरहित स्वरूप के सांगोपांग ज्ञान का नाम विज्ञान है मैं जिस प्रकार सम्पूर्ण हेय गुणगणों से रहित और असीम अतिशय असंख्य कल्याणमय गुणगणरूप अनन्त महाविभूतियों से युक्त होने के कारण मेरे अतिरिक्त समस्त चेतना चेतन वस्तुमात्र के संसर्ग से रहित हूँ, उस असंगता-विषयक ज्ञान के सहित मेरे स्वरूप-विषयक ज्ञान को बतलाऊँगा। अधिक क्या, (मैं ऐसे ज्ञान को बतलाऊँगा) जिसको जान लेने के पश्चात् और मुझमें जानने योग्य कुछ भी नहीं बच रहेगा।। 2।।
वक्ष्यमाणस्य ज्ञानस्य दुष्प्रापताम् आह-
आगे जिस ज्ञान का वर्णन किया जायगा, उसकी दुर्लभता बतलाते हैं-
|