श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अठारहवाँ अध्याय
अतीतेन अध्यायद्वयेन अभ्युदयनिःश्रेयससाधनभूतं वैदिकम् एव यज्ञतपोदानादिकं कर्म, न अन्यत्; वैदिकस्य च कर्मणः सामान्यलक्षणं प्रणवान्वयः, तत्र मोक्षाभ्युदयसाधनयोः भेदः तत्सच्छब्दनिर्दिश्यानिर्दिश्यत्वेन, मोक्षसाधनं च कर्म फलाभिसन्धिरहितं यज्ञादिकम्, तदारम्भः च सत्त्वोद्रेकाद् भवति, सत्त्ववृद्धिः च सात्त्विकाहारसेवया इति उक्तम्।
इससे पिछले दो (सोलहवें तथा सतरहवें) अध्याय में यह बतलाया गया कि अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (परम कल्याण) इन दोनों के साधन वैदिक यज्ञ, तप और दान आदि कर्म ही हैं, अन्य कुछ नहीं। उस वैदिक कर्म का सामान्य लक्षण ॐकार से सम्बन्धित होना है। उनमें यह भेद है कि (वे यज्ञादि कर्म) यदि तत् और सत् शब्द से वर्णन करने योग्य (उनसे सम्बन्धित) होते हैं तो मोक्ष के साधन होते हैं। अतः जो फल की इच्छा से रहित यज्ञादि कर्म हैं, वे ही मोक्ष के साधन हैं। उनका आरम्भ सत्त्वगुण की वृद्धि से होता है और सत्त्वगुण की वृद्धि सात्त्विक आहार के सेवन से होती है।
अनन्तरं मोक्षसाधनतया निर्दिष्टायोः त्यागसन्नायासयोः ऐक्यं त्यागस्य सन्नासस्य च स्वरूपम्, भगवति सर्वेश्वरे च सर्वकर्मणां कर्तृत्वानुसन्धानम्, सत्त्वरजस्तमसां कार्यवर्णनेन सत्त्वगुणस्यावश्योपादेयत्वम्, स्ववर्णोचितानां कर्मणां परमपुरुषाराधनभूतानां परमपुरुषप्राप्ति निर्वर्तनप्रकारः कृत्स्त्रस्य गीताशास्त्रस्य सारार्थों भक्तियोग इति एते प्रतिपाद्यन्ते।
अब मोक्ष-साधन के रूप में बतलाये हुए त्याग और संन्यास की एकता का तथा त्याग और संन्यास के स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है। तथा श्रीभगवान् सर्वेश्वर में समस्त कर्मों के कर्तापन का अनुसन्धान करना बतलाकर फिर सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के कार्य का वर्णन करके सत्त्वगुण को निश्चित रूप से उपादेय बतलाते हैं, एवं परम पुरुष की आराधनारूप स्ववर्णोचित कर्म जिस प्रकार से परम पुरुष की प्राप्ति कराने वाले होते हैं, उस प्रकार का एवं सम्पूर्ण गीताशास्त्र के सार सिद्धान्त भक्तियोग का भी प्रतिपादन किया जाता है।
तत्र तावत् त्यागसन्नायसयोः पृथक्त्वैकत्वनिर्णयाय स्वरूपनिर्णयाय च अर्जुनः पृच्छति-
वहाँ पहले त्याग और संन्यास की पृथक्ता और एकता का निर्णय करवाने के लिये तथा दोनों के स्वरूप का निर्णय करवाने के लिये अर्जुन पूछता है-
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