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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
जो योगमाया की शक्ति है वह भगवान के लीला-सम्पादन के लिये विविध अघटन घटना करती रहती है। परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी महाराज ने यह ‘योगमायामुपाश्रितः’ कहा। इस विशेषण के द्वारा भगवान की अघटन घटनापटीयसी शक्तिरूपा योगमाया का उल्लेख करके इस लीला में उनकी सामयिक प्रयोजनीयता, आवश्यकता, उपयोगिता का बखान किया। भगवान की इस परम मधुर लीलारम्भ का वक्तव्य शेष नहीं होता। ठीक-ठीक कहा नहीं जाता यदि ‘योगमायामुपाश्रितः भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ यह चीज नहीं होती। इसकी पूर्णता ‘योगमायामुपाश्रितः’ को लेकर ही हुई है। तो ऐश्वर्य, वीर्यादि, षडविध महाशक्ति निकेतन भगवान अपनी योगमायाशक्ति का पूर्ण विकास करके तब ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ - उन्होंने रमण की इच्छा की। यदि योगमाया का प्रकाश नहीं होता और गोपोंगनाओं से रमण में प्रवृत्त होते भगवान तो चीज नहीं होती। श्रीगोपांगनाएँ अपने आपको खो नहीं सकती क्योंकि उन्हें खोने देने में जो कारण है; वह सब उपस्थित हो जाते और भगवान का रासक्रीडारूप रमण भी माधुर्यमय नहीं होता। और न ही उसमें विशेष शक्ति का प्रयोजन करना पड़ता-निर्वासन-निष्कासन आदि के लिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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